राफेल लड़ाकू विमान सौदे को लेकर राहुल गांधी मोदी सरकार पर लगातार हमला बोल रहे हैं. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी का आरोप है कि राफेल सौदे में कथित भ्रष्टाचार करने वालों के खिलाफ पीएम मोदी खामोश हैं, जिसका मतलब है कि सौदे में जरूर कुछ घपला हुआ है लेकिन क्या घपला हुआ है इसका राहुल गांधी के पास कोई जवाब नहीं है. राहुल गाँधी सीधे तौर पर घोटाले से जुड़े तथ्य बताते दिखाई नहीं दे रहे हैं. राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी पर बड़ा हमला करते हुए आरोप लगाया कि राफेल डील में मोदी सरकार ने घपला किया है. उन्‍होंने कहा कि मोदी इस डील के लिए निजी तौर पर पेरिस गए थे और वहीं पर राफेल डील हो गई और किसी को इस बात की खबर तक नहीं लगी.

गोपनीयता का सरकार दे रही हवाला, राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा

अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा नियमों के तहत सरकार प्राइस से जुड़े सारे डीटेल्स सार्वजनिक नहीं कर सकती है.दरअसल गोपनीयता की शर्तों के मुताबिक राफेल सौदे के मूल्य और ब्योरे को लेकर सरकार जानकारी सार्वजनिक नहीं कर सकती है. मोदी सरकार 2008 में भारत और फ्रांस के बीच साइन किये गये समझौते के तहत केवल गोपनीय प्रावधानों का पालन कर रही है, जिस पर मोदी सरकार ने नहीं यूपीए सरकार ने हस्ताक्षर किये थे. कांग्रेस जब सरकार चला रही थी, तब उसने भी इस समझौते का पालन किया था. इस शर्त का मतलब ये है कि अगर आइटम वाइज लागत और दूसरी सूचनाएं बताने पर वे सूचनाएं भी आम हो जाएंगी, जिनके तहत इन विमानों का कस्टमाइजेशन और वेपन सिस्टम से लैस किया जाएगा. अगर इनका खुलासा हुआ तो सैन्य तैयारियों और राष्ट्रीय सुरक्षा पर इसका बेहद बुरा असर पड़ सकता है. 

राहुल ने बोला बीजेपी पर हमला

राहुल गांधी ने इस सौदे को लेकर ट्वीट किया, ‘अति गोपनीय ( वितरण के लिए नहीं). आरएम ( रक्षा मंत्री) कहती हैं कि प्रत्येक राफेल विमान के लिए प्रधानमंत्री और उनके ‘भरोसेमंद’ मित्र के बीच हुई बातचीत एक राजकीय गोपनीयता है.’ राहुल ने कहा, ‘एक्शन प्वाइंट. मूल्य के बारे में संसद को सूचित करना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा होगा. जो भी पूछे, उसे राष्ट्र विरोधी घोषित कर दो.’

कांग्रेस ने भी नहीं की थी जानकारी सार्वजनिक

हालांकि हैरान करने वाली बात ये है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब कोई सरकार इस तरह के सौदे की जानकारी सार्वजनिक नहीं करना चाह रही है. दस्तावेजों के मुताबिक कांग्रेस सरकार में प्रणव मुखर्जी और एके एंटनी ने 2005 और 2008 में रक्षा सौदों से संबंधित जानकारी सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया था. 2005 में प्रणव मुखर्जी रक्षा मंत्री थे, तब उनकी ही पार्टी के एक सांसद ने रक्षा खरीद से संबंधित जानकारी मांगी थी, तो राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर प्रणव मुखर्जी ने उनकी मांग को ठुकरा दिया था.

निर्मला सीतारमण भी कर रही शर्तों का पालन

2008 में एके एंटनी रक्षा मंत्री थे, तब भी कुछ ऐसा ही मामला सामने आया था. दिसंबर 2008 में सीपीएम के दो सांसद प्रसंता चटर्जी और मोहम्मद आमीन ने बड़े रक्षा सौदों के सप्लायर्स देश और खरीद की जानकारी मांगी थी, मगर उस वक्त भी एके एंटनी ने सप्लायर्स देशों का नाम तो बता दिया था, मगर इससे अधिक जानकारी देने से मना कर दिया था. 2007 में सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने भी इजराइल से मिसाइल खरीद की जानकारी मांगी थी, और उन्हें तब के रक्षा मंत्री एके ऐंटनी ने ठीक वैसा ही जवाब दिया था जैसा आज रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण दे रही हैं.

क्या डील के मुद्दे को चुनाव में भुनाएंगे राहुल?

जो जानकारियां गुप्त हैं उसके बारे में राहुल गांधी मोदी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुद्दा बनाकर चुनावी मैदान में जाना चाहते हैं. लेकिन राहुल गाँधी कहीं न कहीं कांग्रेस की नीतियों और उनके द्वारा लाये गए प्रावधानों पर ही सवाल उठा रहे हैं जो रक्षा सौदे से जुड़े है. राहुल गाँधी जिस प्रकार इस मुद्दे को उठा रहे हैं, कहीं न कहीं इस मुद्दे को चुनाव में भुनाने की तैयारी में हैं. उन्होंने सीधे पीएम मोदी पर निशाना साधा है और ये इशारा करता है कि चुनावों में राफेल डील को बीजेपी के खिलाफ इस्तेमाल कर सकते हैं.

भारत और फ़्रांस के बीच राफेल डील:

भारतीय वायु सेना ने 2001 में अतिरिक्त लड़ाकू विमानों की मांग की थी. वर्तमान आईएएफ बेड़े में बड़े पैमाने पर भारी और हल्के वजन वाले विमान होते हैं रक्षा मंत्रालय मध्यम वजन वाले लड़ाकू विमान लाना चाहता था. वैसे इसकी वास्तविक प्रक्रिया 2007 में शुरू हुई. रखरखाव आसान होने के कारण भारत को ये विमान पसंद आया था. रक्षा मंत्री ए के एंटनी की अध्यक्षता वाली रक्षा अधिग्रहण परिषद ने अगस्त 2007 में 126 विमान खरीदने के प्रस्ताव पर हरी झंडी दे दी थी.

36 लड़ाकू विमान खरीदेगा भारत

इस सौदे की शुरुआत 10.2 अरब डॉलर (5,4000 करोड़ रुपये) से होनी अपेक्षित थी. 126 विमानों में 18 विमानों को तुरंत लेने और बाकि की तकनीक भारत को सौंपे जाने की बात थी. लेकिन बाद में इस सौदे में अड़चन आ गई. राफेल के लिए भारतीय पक्ष और डेसॉल्ट ने 2012 में फिर बातचीत शुरू हुई. जब नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में आई तो उसने वर्ष 2016 में इस सौदे को फिर नई शर्तों और कीमत पर किया.

रखरखाव और कल-पुर्जों के खर्च से बढ़ी डील

ऐसा माना जा रहा है कि कीमत भी एक अन्य कारण है. विमान की कीमत लगभग 740 करोड़ रुपये बताई गई थी. लेकिन इसके कल-पुर्जे और रख-रखाव के इंतजामों में आने वाले खर्च को मिलाकर 36 राफेल की डील 58 हजार 40 करोड़ रुपये में हुई. एक विमान की कीमत करीब 1600 करोड़ रु तक हो सकती है. शुरुआत में योजना 126 जेट खरीदने की थी, जो भारत ने इसे घटाकर 36 कर दिया. भारत ने कीमतों को देखते हुए ये फैसला लिया था. सरकार ने इस डील का विस्तृत ब्यौरा सार्वजनिक नहीं किया है.

राफेल डील:

भारत और फ़्रांस के बीच राफेल डील में 50 प्रतिशत ऑफसेट क्लॉज यानि प्रावधान है. इस सौदे की पचास प्रतिशत कीमत को रफाल बनाने वाली कंपनी, डेसॉल्ट को भारत में ही रक्षा और एयरो-स्पेस इंडस्ट्री में लगाना होगा. इसके लिए दसॉल्ट कंपनी ने भारत की रिलायंस इंडस्ट्री से करार किया है. जबकि रिलायंस डिफेंस इंडस्ट्री ने जो कंपनी बनाई है, उसके साथ मिलकर डेसॉल्ट कंपनी भारत में ज्वाइंट वेंचर कर रही है.

तो इसलिए बढ़ी डील की कीमत

यूपीए के समय में हुई डील की कीमत बढ़ने का कारण ये भी है इसको भारत अपने मुताबिक उपकरण से लैस कराना चाहता था. प्राप्त जानकारी के अनुसार, राफेल बनाने वाली कंपनी से भारत ने ये भी सुनिश्चित कराया कि एक समय में 75 प्रतिशत प्लेन हमेशा ऑपरेशनली-रेडी रहने चाहिए. यानी हमले के लिए तैयार. इसके अलावा भारतीय जलवायु और लेह-लद्दाख जैसे इलाकों के लिए खास तरह के उपकरण भी राफेल में लगाए गए हैं. ऐसा माना जा रहा है कि पहला राफेल विमान सितंबर 2019 तक वायुसेना के जंगी बेड़े में शामिल हो जाएगा.

2019 सितम्बर में पहली खेप आने की उम्मीद

राफेल का पहला बेड़ा अंबाला में तैनात किया जाएगा और पश्चिम बंगाल के हाशिमारा बेस पर एक स्क्वाड्रन की तैनाती होगी. पाकिस्तान और चीन को हद बताने के लिए राफेल की तैनाती होगी. डेसॉल्ट 227 करोड़ रूपये की लागत से बेस में मूलभूत सुविधाएं तैयार कर रही है. विमानों के लिए रनवे, पाक्रिंग के लिए हैंगर, ट्रेनिंग के लिए सिम्युलेटर भी है.

क्यों जरुरी है राफेल?

एयरफोर्स को पाकिस्तान-चीन से अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए को कम से कम 42 स्क्वाड्रन की ज़रूरत है. वर्तमान में वायुसेना के पास 31 स्क्वाड्रन हैं. एक स्क्वाड्रन में 18 लड़ाकू विमान होते हैं. दो स्क्वाड्रन में रफाल के 36 लड़ाकू विमान होंगे. यानी लड़ाकू विमानों की कमी तो है लेकिन जो राफेल वायुसेना के बेड़े में शामिल होगा तो भारत को नई ताकत मिलेगी, क्योंकि अफगानिस्तान, इराक, सीरिया और लीबिया हुए ऑपरेशंस में इसका इस्तेमाल हो चुका है.

क्या है राफेल की खासियत

राफेल एक फ्रांसीसी कंपनी डैसॉल्ट एविएशन निर्मित दो इंजन वाला मध्यम मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट है. राफेल लड़ाकू विमानों को ‘ओमनिरोल’ विमानों के रूप में रखा गया है, जो कि युद्ध में अहम रोल निभाने में सक्षम हैं. ये बखूबी ये सारे काम कर सकती है- वायु वर्चस्व, हवाई हमला, जमीनी समर्थन, भारी हमला और परमाणु प्रतिरोध. इसका रखरखाव भी आसान माना जाता है इसलिए सरकार ने अन्य विमानों पर इसको तरजीह देते हुए डील की.

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