राष्ट्रपति ने दिल्ली सरकार के संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद से बाहर रखने वाले विधेयक को खारिज कर दिया था और इसके बाद दिल्ली चुनाव आयुक्त ने भी चुनाव आयोग को पत्र लिखकर केजरीवाल सरकार के संसदीय सचिवों को गैर कानूनी बताया है। इसके बाद आम आदमी की सरकार होने का दावा करने वाले केजरीवाल अपने कार्यकाल के पहले बड़े संवैधानिक संकट में फंसते नजर आ रहे हैं।

अब 21 विधायकों के भविष्य पर खतरा और बढ़ गया है और अगर चुनाव आयोग द्वारा 21 विधायकों की सदस्यता लाभ के पद पर काम करने के कारण रद्द की गई तो यह आम आदमी पार्टी की बड़ी राजनीतिक और नैतिक हार होगी।

इसके पहले राष्ट्रपति ने केजरीवाल सरकार के उस बिल को मंजूरी देने से मना कर दिया जिसमें संसदीय सचिव की पोस्ट को ‘ऑफिस ऑफ प्रॉफिट’ यानी लाभ के पद से अलग करने का प्रस्ताव था जिसके बाद आम आदमी पार्टी के विधायकों की सदस्यता खतरे में पड़ती दिख रही हैं क्योंकि दिल्ली चुनाव आयुक्त की चिट्ठी में भी संसदीय सचिवों की नियुक्ति को गलत करार और गैर क़ानूनी दिया गया है।

केजरीवाल सरकार अपनी सफाई देते हुए कह रही है कि इन सचिवों की नियुक्ति सरकारी कामकाज को आसान बनाने के लिए की गयी थी और इन पदों के लिए अलग से कोई वेतन या किसी भी प्रकार का लाभ नहीं दिया गया।

दिल्ली विधानसभा में विधायकों को दिए गए ऑफिस में टीवी, सोफे, टेलीफोन के अलावा एसी आदि की सुविधाओं के बावजूद आम आदमी पार्टी इसे लाभ का पद मानने से इंकार कर रही है।

संसदीय सचिव के पद को लाभ का पद माना जाता रहा है। चूंकि दिल्ली एक केंद्रशासित प्रदेश है लिहाजा यहाँ पर मुख्यमंत्री समेत कुल 7 विधायकों को ही मंत्री बनाया जा सकता है। ऐसे में दिल्ली की केजरीवाल सरकार 21 संसदीय सचिवों को नियुक्त करने के बाद ये सवाल उठने लाजिमी हैं कि आम आदमी के मुद्दे को उठाने का दावा करने वाले अरविंद केजरीवाल ये कदम उठाने को क्यों मजबूर हुए।

सियासत के गलियारों में ये खबर छिपी नहीं है कि योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण से निपटने के वक्त आम आदमी पार्टी किस अंदरूनी कलह का शिकार हुई थी और इन सचिवों की नियुक्ति भी उसी वक्त की गई थी जिससे ये कहा जा रहा है कि विधायकों को खुश रखने के लिए केजरीवाल ने असंवैधानिक तरीके से सभी नियम कानून को ताक पर रखकर 21 विधायकों को संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त किया ताकि पार्टी में उनके खिलाफ लामबंदी ना बढ़े।

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