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बेहद विषम हालात और उस पर ऊंचाई से घात लगाए बैठे दुश्मन को खोजकर उनको मार गिराना इतना आसान नहीं था। लेकिन यह भारतीय सेना के जांबाजों का पराक्रम ही था कि उसने विश्व जगत के आंकलन को गलत साबित कर दिया और कारगिल से दुश्मनों को मार भगाया।
उनकी ओर से होने वाली बम और गोलियों की बारिस भी भारतीय सेना के जांबाजों के कदम नहीं रोक सकी। बेहद विषम परिस्थितियों के बीच इन जवानों ने अपने पराक्रम का परिचय देते हुए उस कारगिल युद्ध पर जीत दर्ज की जिसे पूरा विश्व देख रहा था।

शहर के 76 जांबाजों ने दी थी शहादत

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  • भारतीय सेना की इस जीत में शहर के जांबाजों का भी अहम योगदान रहा।
  • इन शूरवीरों को याद किए बिना कारगिल विजय दिवस की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
  • कारगिल युद्ध में दुश्मनों को खदेड़कर वहां तिरंगा लहराने वाले जांबाजों में शहर के शूरवीर भी शामिल थे।
  • इन रणबांकुरों ने अपने पराक्रम की जो मिसाल कायम की उसे भूलाया नहीं जा सकता।
  • अपने प्राण न्यौछावर कर इन शहीदों ने मातृभूमि की रक्षा की।
  • अपने लाडले की शहादत पर इनके परिवारीजनों को गर्व है।
  • बुधवार को कारगिल विजय दिवस की 17 वीं वर्षगांठ हैं।
  • कारगिल युद्ध में सबसे अधिक शहादत उत्तर प्रदेश के 76 जांबाजों ने दी थी।

आगे पढ़ें शहीदों के त्याग की कहानी 

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बीमार पत्नी को छोड़ संभाला मोर्चा

  • 15 कुमाऊं मेंं तैनात शहीद लांसनायक केवलानंद की पत्नी कमला की तबियत बहुत खराब थी।
  • पत्नी को देखने वह दो साल के बाद 26 मार्च 1999 को घर आए थे।
  • अभी वह पत्नी कमला का उपचार करवा ही रहे थे कि मुख्यालय से जंग पर जाने का तार आ गया।
  • वह पत्नी और दो छोटे बच्चों को छोड़कर 30 मई को वापस कारगिल रवाना हो गए।
  • आखिरी बार तीन जून को पत्नी को फोन किया और कहा कि कल मैं दुश्मनों को भगाने जा रहा हूं।
  • चार जून को केवलानंद द्विवेदी की टुकड़ी कारगिल के एक मोर्चे पर दुश्मनों पर टूट पड़ी।
  • उसके बाद छह जून को जमकर घमासान हुआ।
  • ऊंचाई पर बैठे दुश्मनों की गोलियों का सामना करते हुए केवलानंद द्विवेदी आगे बढ़ रहे थे।
  • तब ही एक गोली केवलानंद द्विवेदी के सीने में लगी।
  • वह गिर गए फिर बंदूक थामी और गोलियां बरसाने लगे।
  • अधिक देर तक मोर्चा लेते हुए वह शहीद हो गए।

आठ साल में ही फौजी बना सुनील 

  • राइफलमैन सुनील जंग महत तो महज आठ साल की उम्र में ही फौजी बन गया था।
  • उसने आठ साल की उम्र में स्कूल की फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया।
  • रंगबिरंगी कपड़े की जगह सेना की वर्दी पहनी हाथ में बंदूक ली और स्कूल पहुंच गया।
  • वहां जब सुनील ने कहा कि  मैं अपने खून का एक-एक कतरा देश की रक्षा के लिए बहा दूंगा।
  • यह सुन लोग रोमांचित हो गए थे। दरअसल सुनील को बहादुरी विरासत में मिली थी।
  • सुनील के दादा मेजर नकुल जंग और पिता नर नारायण जंग महत सेना की गोरखा टुकड़ी में थे।
  • केवल 16 साल की उम्र में घरवालों को बिना बताए ही सेना में भर्ती हो गया।
  • सुनील को 10 मई 1999 को उसकी 1/11 गोरखा राइफल्स की एक टुकड़ी के साथ कारगिल सेक्टर पहुंचने के आदेश हुए।
  • सूचना मिली थी कि कुछ घुसपैठिए भारतीय सीमा के भीतर गुपचुप तरीके से प्रवेश कर गए हैं।
  • तीन दिनों तक राइफलमैन दुश्मनों का डटकर मुकाबला करता रहा।
  • वह लगातार टुकड़ी के साथ आगे बढ़ रहा था कि 15 मई को भीषण गोलीबारी में कुछ गोलियां उनके सीने में जा लगी।
  • इस पर भी सुनील के हाथ से बंदूक नहीं छूटी और वह लगातार दुश्मनों पर प्रहार करता रहा।
  • तब ही दुश्मन की एक गोली सुनील के चेहरे पर लगी और सिर के पिछले हिस्से से बाहर निकल गई
  • और सुनील वहीं पर शहीद हो गया।

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ध्वस्त किए दुश्मनों के बंकर
  • शहर को एकमात्र परमवीर चक्र कैप्टन मनोज पांडे को मरणोपरांत दिया गया।
  • छह जून 1997 को 11 को गोरखा राइफल में मनोज को कमीशन हासिल हुई।
  • अल्फा कंपनी का उपकमान अधिकारी बनाकर उनकी पहली तैनाती ही जम्मू कश्मीर के नौशेरा में हुई थी।
  • इसके बाद वह सियाचिन की चौकी पर देश की रक्षा करने पहुंचे।
  • सियाचिन के बाद उनकी तैनाती पुणे होने वाली थी।
  • चार मई 1999 को उनकी पल्टन को पुणे की जगह कारगिल कूच करने का आदेश हुआ।
  • पल्टन के भारी हथियार वहीं जमा हो गए।
  • कैप्टन मनोज पांडे को दो व तीन जुलाई को महत्वपूर्ण खालूबार पोस्ट को मुक्त कराने का जिम्मा मिला।
  • कैप्टन मनोज ने बंकरों को नष्ट करने के लिए बायीं ओर से दुश्मनों के चार बंकरों पर कूच कर गए।
  • पहले बंकर में दो दुश्मनो को मारा, दूसरे बंकर पर कब्जा जमाया।
  • और फिर तीसरे बंकर को तबाह करने के लिए आगे बढ़े तब ही दुश्मनों का गोला उनके सामने आकर गिरा।
  • कंधे व पैर बुरी तरह घायल होने के बावजूद कैप्टन मनोज ने तीसरे बंकर को तबाह किया।
  • चौथे व अंतिम बंकर को भी वह कब्जे में ले रहे थे कि दुश्मनों की गोलियां उनके सीने में लग गईं।
  • शहीद होने से पहले कैप्टन मनोज ने चौथे बंकर पर तिरंगा लहरा दिया।
    जान देकर जोड़ा संपर्क
  • कैप्टन आदित्य मिश्र के पिता सेना में ही एक वरिष्ठ अफसर थे।
  • कैथड्रल और चिल्ड्रेन अकादमी के बाद वह आगे की शिक्षा के लिए पिता के साथ जम्मू व कश्मीर चले गए।
  • आठ जून 1996 को सेना की सिग्नल कोर में सेकेंड ले. के रूप में कमीशन मिली।
  • सितंबर 1998 में कैप्टन आदित्य की तैनाती लद्दाख स्काउट में हो गई।
  • यहां से लद्दाख स्काउट के साथ ही कैप्टन आदित्य 19 जून 1999 को बटालिक सेक्टर पहुंचे।
  • 17 हजार फीट ऊंची प्वाइंट 5203 पोस्ट को छुड़ाने के लिए लद्दाख स्काउट ने आक्रमण कर दिया।
  • पोस्ट पर भारतीय कब्जा हो गया और फिर उसके बाद कैप्टन आदित्य टुकड़ी के साथ नीचे की ओर आ गए।
  • कब्जे में आए पोस्ट तक संचार लाइन जोडऩा उस युद्ध में बेहद जरूरी था।
  • कैप्टन आदित्य संचार लाइन बिछाने दोबारा पोस्ट पर गए तो दुश्मनों ने हमला बोल दिया।
  • कैप्टन आदित्य घायल हो गए लेकिन वह फिर उठे और तब तक नहीं रुके जब तक संचार लाइन बिछ नहीं गई।
  • संचार लाइन शुरू करने के बाद कैप्टन आदित्य मिश्र शहीद हो गए।

 

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मासोक्कोह सेवियर बने रीतेश 

  • शहर के मेजर रीतेश शर्मा को कारगिल युद्ध में मासोक्कोह सेवियर का खिताब मिला।
  • हालांकि उनकी शहादत कारगिल युद्ध समाप्त होने के बाद एक आतंकी ऑपरेशन में हुई।
  • लामार्टीनियर कॉलेज से पढ़ाई के बाद नौ दिसंबर 1995 को मेजर रीतेश शर्मा को सेना में कमीशन मिला।
  • वह 30 मई 1999 को 15 दिनों की छुटटी के लिए घर आए थे।
  • सूचना मिली कि जाट रेजीमेंट के जवानों की पेट्रोलियम टुकड़ी की कारगिल में कोई खबर नहीं मिली है।
  • यूनिट से कोई संदेश मिले बिना ही मेजर रीतेश अपनी 17 जाट रेजीमेंट पहुंच गए।
  • मेजर रीतेश चोटी संख्या 4875 पर तिरंगा लहराते हुए आगे बढ़ रहे थे।
  • इसके बाद यूनिट ने चोटी पिंपल एक व पिंपल दो पर तिरंगा लहराया।
  • छह व सात जुलाई की मध्य रात्रि मश्कोह घाटी में फतह करते हुए मेजर शर्मा घायल हो गए।
  • मेजर शर्मा ने अपनी कमान सेकेंड इन कमांड कैप्टन अनुज नैयर को सौंपी।
  • कैप्टन नैयर शहीद हुए और उनकी 17 जाट रेजीमेंट ने मश्कोह घाटी में तिरंगा लहरा दिया।
  • उनकी यूनिट को इसके लिए मासोक्कोह सेवियर के खिताब से नवाजा गया।
  • कारगिल युद्व के बाद 25 सितंबर 1999 को कुपवाड़ा में आतंकी ऑपरेशन के दौरान वह घायल हो गए।
  • और नार्दर्न कमांड अस्तपाल में छह अक्तूबर को उन्होंने अंतिम सांस ली।

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