कपिल काजल
बेंगलुरु, कर्नाटक
शहर पहले ही वायु प्रदूषण की चपेट में हैं। इसमें सुक्ष्म कण, कार्बन, नाट्रोजन लगातार मिल रहा है। रही सही कसर एरोसोल (सुक्ष्म ठोस कणों अथवा तरल बूंदों के हवा या किसी अन्य गैस में इस तरह से रसायनिक क्रिया करते हैं, कि वह अलग अलग तो रहते है, लेकिन ऐसे दिखते है कि वह एक ही है।  एरोसोल प्राकृतिक या मानव जनित हो सकते हैं। हवा में उपस्थित एरोसोल को वायुमंडलीय एरोसोल कहा जाता है। धुंध, धूल, वायुमंडलीय प्रदूषक कण तथा धुआँ एरोसोल के उदाहरण हैं।
सामान्य बातचीत में, एरोसोल  फुहार को कहते हैं,  जो कि एक डब्बे या  पात्र में उपभोक्ता उत्पाद के रूप में उपलब्ध  है। इसमें  तरल या ठोस कणों का व्यास 1 माइक्रोन या उससे भी छोटा होता है
) अध्ययन से पता चला कि वाहनों से निकलने वाला धुआं वायु मंडल में एरोसोल बढ़ा रहा है।
भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान, पुणे द्वारा किये गए शोध के मुताबिक
वायुमंंडल एरोसोल बहुत छोटे ठोस कण या फिर तरल कण है, जो वायुमंडल में  धुंध, धूल  और धुएं के और सुक्ष्म कण से मिल कर बनते हैं।

वाहनों से निकलने वाले धुएं के साथ साथ कोयले से चलने वाले बिजली उत्पादन संयंत्र, और उद्योगों है। यह भी बताना उचित रहेगा कि  एरोसोल जलवायु परिवर्तन को भी  प्रभावित कर सकते हैं। क्योंकि इससे सूर्य का प्रकाश फैल जाता है, जिससे वायुमंडल में गर्मी का स्तर प्रभावित होता है। इसका असर बरसात पर भी पड़ता है। एक रिसर्च के अनुसार
बेंगलुरु राजमार्गों पर ब्लैक कार्बन का साइज  67 एमजी / एम3 मिला है। जबकि अन्य सड़कों पर यह  15 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर था (1 =g = 10 लाख ग्राम) मिला है।  जबकि  विश्व स्वास्थ्य संगठन के शोध के मुताबिक यदि इनकी मात्रा  यह मात्रा  20 WHg / m3 से अधिक  है, तो यह सेहत के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं।

भारतीय विज्ञान संस्थान के वायुमंडलीय और महासागरीय विज्ञान केंद्र के प्रोफेसर  एस के सथेश ने बताया कि कि एरोसोल का वातावरण व इंसानों के  स्वास्थ्य पर  काफी विपरीत  प्रभाव पड़ता है।वाहनों का धुआं, कोयला, और  कचरा जलाने से यह बढ़ता है। हम इसे काला कार्बन कह सकते हैं।
यूनाइटेड स्टेट्स पर्यावरणीय  संरक्षण एजेंसी के अनुसार काला कार्बन एक विश्वव्यापी समस्या है। इसका पर्यावरण और इंसान के स्वास्थ्य के साथ साथ  हमारी जलवायु पर भी  नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
जब भी हम सांस लेते हैं तो कार्बन कण सांस के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। इस तरह से यह स्वास्थ्य संबंधी कई समस्या पैदा कर देता है। इससे सांस के रोगों के साथ साथ दिल की बीमारी, कैंसर और यहां तक कि जन्म लेने वाले शिशुओं में कई तरह की दिक्कत पैदा हो सकती है।
फ्रांस स्थित विश्वविद्यालयों के एक अध्ययन से तो यह भी पता चला है कि  एयर फ्रेशनर, डिओडोरेंट, सुगंधित
तेल और धूप से भी  एरोसोल पैदा होता है। क्योंकि इसमें कुछ ऐसे जहरीले तत्व मिले होते हैं। हालांकि इन्हें बनाने वाली कंपनियां इस बात को छुपाती है। इसका जिक्र नहीं किया जाता। फिर भी अध्ययन से पता चला है कि इसमें  खुशबू बनाने के लिए बेंजीन, नेफ्थलीन, टेरेपीन और सिंथेटिक इत्र,  पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक
हाइड्रोकार्बन, जो  त्वचा और सांस के माध्यम से शरीर के अंदर प्रवेश कर जाते हैं। इस तरह की सामग्री से भी अस्थमा होने का अंदेशा बढ़ जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे  उत्पादों पर भी तंबाकू की तरह चेतावनी छपी होनी चाहिये। जिसमें बताया जाये कि यह घर के अंदर प्रदूषण की वजह बन सकते हैं।

फाउंडेशन ऑफ इकोलॉजीकल सिक्युरिटी ऑफ इंडिया कीे गवर्निंग काउंसिल के सदस्य
डॉ. येलपा रेड्डी ने बताया कि एरोसोल को बढ़ावा देने वाले जहरीले पदार्थों की घरेलू बाजार में काफी मांग बढ़ रही है। इसकी वजह यह है कि इसके विज्ञापन पर खूब खर्च हो रहा है। जिससे प्रभावित होकर हर कोई इनका प्रयोग कर रहा है। इन तरह के उत्पादों के विज्ञापन में फिल्मी स्टार को शामिल किया जाता है। जो सीधे युवा वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। रही सही कसर तब पूरी हो जाती है जब विज्ञापन को इस तरह से डिजाइन किया जाता है कि इस उत्पाद का प्रयोग करने वाला सेक्स अपील बढ़ जाती है।
प्रो. सत्येश चेताते हैं कि बेंगलुरू अस्थमा का बड़ा केंद्र बनता जा रहा है। इसकी वजह है कार्बन की बढ़ती मात्रा। अब वक्त आ गया कि हम सभी को मिल कर इसे रोकना होगा। इसके लिए वाहन का प्रयोग कम से कम करना होगा। क्योंकि इनका धुआं एरोसोल को बढ़ाने की बड़ी वजह है। इसके साथ ही जिन भी चीजों के इस्तेमाल से एरोसोल बढ़ रहा है, उनके प्रयोग को बंद करना होगा। यदि बंद नहीं किया जा सकता तो इसे कम तो हर हालत में करना होगा।

(कपिल काजल बेंगलुरु के स्वतंत्र पत्रकार है, वह  101Reporters.com जो कि अखिल भारतीय  ग्रासरूट रिपोर्टर्स , के सदस्य है)

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