लखनऊ। केंद्र सरकार द्वारा देश में 500 और 1000 रूपये के नोटों को बंद करने का फैसला आते ही मानों भुंकप सा आ गया हो। 8 नवंबर को हुई इस घोषणा के बाद से पूरा देश बैंक और एटीएम की लाइन में खड़ा हो गया। आम-जन तो इस परेशानी से जैसे तैसे उभर रहे हैं। लेकिन देश को चलाने वाली सत्ताधारी पार्टियों के लिए यह फैसला मानों किसी काल से कम नहीं।

राजनीतिक दल हुए परेशान:

उत्तरप्रदेश में आगामी 2017 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इस नोटबंदी की घोषणा ने मानों रातों रात सभी पार्टी के पसीने छुड़ा दिए है। इस फैसले के खिलाफ प्रदेश में सत्ताधारी पार्टी समाजवादी पार्टी (सपा) के तेवर चढ़ गए है। वहीं सत्ता से बाहर बहुजन समाजवादी (बसपा), व कांग्रेस पार्टी का भी यही हाल है। भाजपा भले ही इसे ऐतिहासिक फैसला करार दे रही हो, लेकिन प्रदेश में पार्टी के कैंडिडेटस के माथे पर पसीना साफ पता चलता है।

हजारों करोड़ रूपये होते हैं चुनाव में खर्च:

विशेषज्ञों की माने तो अकेले उत्तरप्रदेश राज्य में विधानसभा चुनाव के दौरान 3 से 4 हजार करोड़ रूपये पानी की तरह बहाया जाता है। इसमें 70 प्रतिशत से ज्यादा नकदी का इस्तेमाल होता आया है। इस नकदी का ज्यादातर हिस्सा ब्लैकमनी होता है, जिसका कोई हिसाब नहीं।

नोटबंदी के फैसले से अचानक ही सभी पार्टियों ने आनन-फानन में अपनी आगामी रैलियां और दौरे रद्द करना शुरू कर दिये। इसके बाद सभी पार्टियां पुन:नये सिरे से अपनी रणनीतियां तैयार करने को मजबूर हो गई है। क्योंकि अब तक लगभग से पार्टियों ने चुनाव के लिए खर्च होने वाले रूपयों की व्यवस्था कर ली थी। जिसमें ज्यादातर कैश ही होता है। ऐसे में हजारों करोड़ रूपये को इतनी जल्दी न खपाया जा सकता है और न ही बदला जा सकता है।

वोट और नोट की राजनीति खतरे में:

आगामी चुनाव में यह तो तय माना जा रहा है कि वोटरों को कैश देकर लुभाने के काम पर लगाम लगेगी। वहीं शराब और तोहफो के चलन पर लगाम लगनी भी तय है। इस बार वहीं पार्टी अपना दबदबा कायम कर सकेगी जो पहले की तरह ही जमीन स्तर पर लोगों के घर-घर पहुंच कर संपर्क साधे। क्योंकि नकदी का प्रवाह रूकने के चलते न ही ज्यादा हैलीकॉप्टर बुक होने वाले है, न ही बेहिसाब रैलियां आयोजित की जा सकेंगी। सभी पार्टियों को अपने खर्चों पर कंट्रोल करना ही पड़ेगा।

रैलियों पर प्रभाव पड़ने का सबसे बड़ा कारण यह है कि ज्यादातर पार्टियां राजधानी में अपने दबदबा दिखाने के लिए प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों से भारी भीड़ जुटाने का काम, नकद पैसे या तोहफे बाँट कर ही करती है। लेकिन इस बार ऐसा करना काफी मुश्किल होने वाला है। वहीं रैलियों की संख्या और आकार भी कम होने के आसार है। पार्टियों का फंड सबसे ज्यादा बड़े व्यापारियों से आता है, लेकिन इस बार तो वह खुद ही इस नोटबंदी के जाल में बुरी तरह से फंसे हुए है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि नोटबंदी का असर प्रदेश में सभी पार्टियों को काफी प्रभावित करने वाला है। एक ओर चुनाव में होने वाली फिजूलखर्ची पर लगाम लगेगा। वहीं ब्लैकमनी का वर्चस्व काफी हद तक यूपी चुनाव से बाहर रहने की उम्मीद है। वहीं साफ-सुथरी छवि वाले नेताओं की वापसी के आसार काफी बुंलद होगें।

Story by Dhirendra Singh

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