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मोदी सरकार के तीन साल: कितना हुआ ‘सबका साथ, सबका विकास’!

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भारतीय जनता पार्टी ने 16 मई 2014 के दिन तीन साल पहले लोक सभा में पूर्ण बहुमत हासिल किया था। जिसने बड़े-बड़े राजनीतिक पंडितों को चौंका दिया। यह तो सब मानते थे कि बीजेपी को बढ़त हासिल है, पर वह इतनी अधिक सीटें ले आएगी और कांग्रेस 50 की सीमा भी नहीं छू पाएगी, इसकी शायद ही किसी ने कल्पना की थी। पिछले तीन दशकों के उपरांत किसी पार्टी को देश में पूर्ण बहुमत मिला था। इस प्रचंड जीत के बाद नरेंद्र मोदी 26 मई 2014 को शपथ ग्रहण कर देश के प्रधानमंत्री बने। आज भी पूरे जोश-खरोश के साथ अपने काम पर डटे हैं पीएम मोदीबीजेपी के भीतर और उसके बाहर के उनके समर्थक उनकी नीतियों और उनके कामकाज के तरीकों को अभूतपूर्व बताते हैं, जबकि विपक्षी दल उन पर सवाल उठाते हैं।

शुरू-शुरू में मोदी को तमाम विशेषज्ञों का समर्थन मिला, पर अब कई विशेषज्ञ भी मोदी की नीतियों की आलोचना करने लगे हैं। सरकार ने किन क्षेत्र में क्या उपलब्धियां हासिल की। कहां वह सफल, कहां फेल हुई। जनता के साथ किए गए वायदों का क्या हुआ, उसको किस हद तक पूरा किया और आगे का रोडमैप क्या है? इन प्रश्नों को लेकर यदि मोदी सरकार का मूल्यांकन करें तो मतभेद हो सकता है। जैसे सितंबर 2014 में आरंभ ‘मेक इन इंडिया’ को लें। इस योजना को जितना परवान चढ़ना चाहिए था और भारत को विश्व मंच पर एक प्रमुख मैन्यूफैक्चरिंग हब बनने की दिशा में जहां तक होना चाहिए था, उसमें अब कमी स्पष्ट तौर से साफ दिख रहा है।

पिछले तीन सालों में जितना ‘सबका साथ, सबका विकास’ जितना होना चाहिए था, उतना नहीं हो सका है, चाहे सरकार इसके लिए अपनी प्रचार शक्ति का जितना इस्तेमाल किया। जहां तक स्वच्छता अभियान का प्रश्न है इस अभियान को जिस स्तर पर आज होना चाहिए, वहां नहीं है। आदर्श ग्राम योजना को ही लीजिए। विपक्षी पार्टी का तो हर काम में नहीं करने की आदत सी रही है, चाहे जो भी पार्टी विपक्ष में रहे। लेकिन सत्ताधारी भाजपा के मंत्री एवं सांसदों ने इसके लिए क्या सार्थक भूमिका निभाई। तीन साल तो देखते-देखते निकाल दिया। अब जो समय बचा है कह रहे हैं कि वर्ष 2022 से पहले कुछ नहीं करना है। आंकड़ों पर आधारित इनकी सफलता-विफलता की तस्वीरें देखिए।

पिछले एक दशक को देखिए तो किसान की आय में कोई व्यापक सुधार नहीं आया है। दिन पर दिन उनकी आय कम होती गई और किसानों की स्थिति पहले की अपेक्षा और ज्यादा सोचनीय हो गई। किसान आत्महत्या जैसा कदम उठा रहे हैं और न जाने कितने किसान खुदकुशी कर चुके हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है? अब इसकी चिकित्सा की नहीं, बल्कि गंभीर सर्जरी की आवश्यकता है।

हाल में तमिलनाडु के किसान चर्चा के केन्द्र में रहें हैं, चाहे कारण जो भी रहा हो, उन्हें अपना जीवनयापन चलाना मुश्किल हो गया है। तमिलनाडु में उनकी बात सुनी नहीं जा रही है और हमारा बिकाऊ मीडिया उनको जिस तरह की तवोज्जो दी जानी चाहिए, नहीं देता है। क्योंकि यह उनके टीआरपी या बिजनेस से जुड़ा मुद्दा नहीं है। बिकाऊ मीडिया भी उन्हें तवोज्जो तब देता है जब उसे अपने सहयोगी चैनल से इस खबर के लिए मुकाबला करना होता है तब उस खबर को प्रमुखता देता है। किसानों ने खोपड़ी लेकर दिल्ली में जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया। अपना मूत्र पिया। उन्होंने कहा कि अब मल खायेंगे। फसल बीमा एवं किसानों को लाभ देने के नाम पर प्रचार करने वाले राज्य एवं केन्द्र सरकार बराबर इसका श्रेय लेने की कोशिश करते हैं। ताजा उदाहरण मध्यप्रदेश के मंदसौर के किसानों की है, जहां हालात बेकाबू है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के लिए यह गले की हड्डी बनी हुई है। हमारे अन्नदाता किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कर्जमुक्ति के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं। आखिर इसका निदान क्या है? आखिर इन अन्नदाता किसानों की सुध कब ली जाएगी? किसानों कर्ज माफी का मुद्दा काफी गंभीर है। हमारे केन्द्रीय वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली का कहना है यह राज्यों से जुड़ा मामला है, इसके लिए हर राज्य को अपने स्रोतों से उपाय ढूंढना होगा। क्या कारण है कि बिजनेस लोन काॅरपोरेट एवं धन्ना सेठों को दे दिये जाते हैं। जबकि किसानों के कर्ज माफी का मुद्दा केन्द्र और राज्यों के बीच उलझ कर रह गया है। केन्द्र उन्हें मदद करने को तैयार नहीं है और हर राज्य इस माफी के लिए अपनी लाचारी व्यक्त करते हैं कि हम बिना केन्द्र के सहयोग के कुछ कर नहीं सकते। जब पानी सिर से ऊपर हो जाता है। हालात बेकाबू हो जाते हैं, तब ही केन्द्र एवं राज्य किसानों के लिए कुछ फैसला करते हैं अन्यथा वे इस मामले में केन्द्र हो राज्य ज्यादा गंभीर नहीं हैं।

आज हर जगह मोदी का नाम छाया रहता है। दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव के बाद जहां भी चुनाव हुआ है बीजेपी पहले से बेहतर प्रदर्शन की। विपक्ष समझ नहीं पा रहा कि मोदी आखिर इस कदर पॉपुलर क्यों हैं? कोई मंत्रालय या विभाग कुछ भी विशिष्ट कार्य करता है तो उसका सेहरा भी मोदी के सिर बंधता है। अब तो प्रदेश बीजेपी सरकारों के मुखिया भी अपनी उपलब्धियों का सारा श्रेय उन्हें ही देते हैं। एक व्यक्ति को इतना महत्व मिलना भयभीत भी करता है।

सरकार भले ही यह दावा करे कि देश की इकनॉमी ठीक चल रही है, फर्राटे के साथ दौड़ रही है और इसकी ग्रोथ रेट भी 7 फीसदी की रफ्तार से आगे बढ़ रही है। लेकिन इसका सबसे बड़ा प्रमाण है सरकार द्वारा जारी मिनिस्ट्री ऑफ कॉर्पोरेट अफेयर्स की रिपोर्ट। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इकनॉमिक स्लोडाउन की वजह से दिल्ली, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल उन 7 राज्यों में शामिल हैं, जहां पर सबसे ज्यादा कंपनियां बंद हो रही हैं।

पिछले तीन वर्षों में 2014 से फरवरी 2017 तक देश में 3 लाख से ज्यादा कंपनियां बंद हो चुकी हैं। जिन राज्यों में कंपनियां बंद हुई हैं, उनमें गुजरात और यूपी भी शामिल हैं। बंद कंपनियों की संख्या दिल्ली में सबसे ज्यादा है। दिल्ली में 52001, महाराष्ट्र में 49552, पश्चिम बंगाल में 48080, तमिलनाडु में 30111, गुजरात में 16542, कर्नाटक में 16526 और उत्तर प्रदेश में 13185 कंपनियां बंद हुई हैं। इतनी बड़ी संख्या में कंपनियों का बंद होना स्वयं ही एक प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है? क्या यह कंपनियां सिर्फ कागजों पर दिखावे के लिए खोली गई थी या वाकई में इनका कोई अस्तित्व था? या सिर्फ मुखौटा कंपनियां थीं? क्योंकि तीन लख कंपनियां बंद होना संख्या के हिसाब से कमतर बिल्कुल नहीं है।

देश में इस समय 16,29,867 कंपनियां रजिस्टर्ड हैं। सबसे ज्यादा कंपनियां महाराष्ट्र में 3,26,129 हैं। उसके बाद दिल्ली में हैं। पश्चिम बंगाल में 1,92 लाख से ज्यादा और तमिलनाडु में 1,26 लाख से ज्यादा कंपनियां रजिस्टर्ड हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमे से 29 फीसदी कंपनियां बिजनेस सर्विस सेक्टर में सक्रिय है। इसके बाद 20 फीसदी कंपनियां मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, 14 फीसदी ट्रेडिंग और 10 फीसदी कंस्ट्रक्शन सेक्टर में एक्टिव हैं।

इकनाॅमी में स्लोडाउन की वजह से मैन्युफैक्चरिंग यूनिट बंद कर कारोबारी अन्य कारोबार की तरफ जा रहे हैं। कई राज्यों में पॉल्युशन की सख्ती की वजह से भी कंपनियां बंद हुई हैं। दिल्ली जैसे राज्य से कंपनियों दूसरे राज्यों में भी शिफ्ट हुई हैं। नए कंपनी कानून में कंपनी बंद करना भी पहले से ज्यादा आसान हुआ है। ऐसे में नुकसान होने पर कारोबारी कंपनियां बंद कर रहे हैं।

मोदी सरकार ने ऐसे कौन से फैसले लिए जिनसे सीधे-सीधे जनता की जेब पर डाका पड़ा। नरेंद्र मोदी सरकार के तीन साल के कार्यकाल में महंगाई की मार सबसे ज्यादा रेलवे पर पड़ी। जबकि भारतीय रेलवे को भारत की जीवनरेखा कहा जाता है। चाहे वो फ्लेक्सी फेयर सिस्टिम हो या प्रीमियम तत्काल रेल या साधारण यात्रा मोदी सरकार के दौरान महंगी हुई है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 135 डॉलर प्रति बैरल से 35 डॉलर प्रति बैरल तक गिर गईं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके लिए खुद को ‘भाग्यवान’ भी बताया था। परन्तु अंतरराष्ट्रीय बाजार में 10 गुना कम होने के बावजूद आम भारतीयों के भाग्य में कम कीमत पर मिलना नहीं लिखा। केंद्र सरकार ने पेट्रोल-डीजल पर टैक्स बढ़ा दिया जिसकी वजह से उनकी कीमत कच्चे तेल की कीमत गिरने से पहले वाली दर के आसपास ही बनी रहीं। बहुत से लोग सरकार के इस फैसले से ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। किसी भी क्षेत्र में नौकरी करने वाले आम भारतीयों के लिए सवाधि जमा खाता, पीपीएफ, किसान विकास पत्र पैसे बचाने के सबसे लोकप्रिय साधन हैं। मोदी सरकार ने इन सभी खातों में मिलने वाले ब्याज पर पहले के मुकाबले की कटौती करके हथौड़ा चला दी।

केन्द्र में सत्ता परिवर्तन के बाद लोगों को लगा, अब उनकी सारी परेशानी बस खत्म-सी होने वाली है। शायद भगवान ने इसलिए धरती पर मोदीजी को अवतरित किया है। नई सरकार बनने के बाद मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत, योग, जनधन, अटल पेंशन योजना, आदर्श ग्राम योजना, मुद्रा योजना, अंत्योदय, सबके लिए घर, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, स्मार्ट सिटी, स्टैंड अप इंडिया जैसे फ्लैगशिप कार्यक्रमों की शुरुआत की गई। लेकिन इसमें देश में सीधे रोजगार देने के लिए किसी कार्यक्रम का झंडा नहीं लहराया गया। क्या ये सरकार की चूक है?

मोदी जो स्वयं के ब्रांडिंग पर ध्यान देते हैं, नौजवानों के रोजगार की ब्रांडिंग शायद इस मामलें में बहुत पीछे छूट चूके हैं। आज देश के नौजवानों के सामने रोजगार की विकराल समस्या सबसे बड़ा मुद्दा बनकर खड़ा है। मोदी सरकार ने कार्यभार संभालने के बाद जिन योजनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर लांच करने की कोशिश की उनमें से किसी योजना का सीधा सरोकार देश में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए नहीं थे। हालांकि ज्यादातर योजनाओं में नए रोजगार पैदा होने की उम्मीद जरूर है, लेकिन वह तभी संभव है जब यह योजनाएं सफल हों।

नोटबंदी का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि बैंक के पास जो कैश फ्लो की परेशानी थी, बैंक में बहुत बड़ी मात्रा में कैश की वापसी हुई और फिलहाल बैंक के पास अलग से सरकार को तत्काल कैश डालने की जरूरत नहीं है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि बहुत सारे उद्योग-धंधे पटरी से बेपटरी हो गए और आज तक अपनी पटरी पर वापस नहीं लौट पाए। लोगों के काम धंधे छूट गए, उनकी जीवनचर्या प्रभावित हुई। बेरोजगार हताश हैं। केन्द्र सरकार के कौशल परीक्षण से परिपूर्ण होने बाद भी उन्हें अपने कौशल से संबंधित इकाइयां में रोजगार/नौकरी नहीं मिल रहा है। नौजवान हताश हैं, क्या करें, क्या न करें, उनकी समझ से परे है।

अपना उद्योग शुरू करना और सरकार द्वारा प्रदत्त योजना से सरकारी ऋण लेना जैसे चांद पर पहुंचने जैसा ही होगा। जैसे बहुत सारे वैज्ञानिक भी चांद पर नहीं पहुंच पाते, कोई-कोई वैज्ञानिक ही चांद पर पहुंच पाता है। वैसे ही सरकार से उद्योग-धंधे के नाम पर ऋण मिलना, भाग्य से कुंए में तेल मिलने जैसा ही है। विरले ही सरकारी ऋण का स्वाद चख पाते हैं। मिलता है जिन्हें अरबों रुपये! वे लौटाने के नाम तक नहीं लेते। अक्सर ये कंपनिया कंगाल हो जाते हैं क्योंकि उनका मूल ध्येय ही यही होता है। चूना लगाने के बाद कंपनियां दिवालिया हो जाती हैै और बैंक के धन का चूना लग जाता है। बैंक उसे एनपीए के खाते में डाल इतिश्री कर लेते हैं। फिर वह लंबी एवं लचर कानूनी प्रक्रिया में उलझ कर रह जाती है। आम लोग छोटी-सी राशि लाख रुपये ऋण के लिए बैंक एवं सरकारी दफ्तर में चक्कर लगाते-लगाते, खुद-ब-खुद बेहोश हो जाते हैं, उसके बाद वह उद्योग-धंधे लगाने के सपने तक को भूल जाते हैं। यह बहुत बड़ी कड़वी सच्चाई है। बिना सिफारिश और तिकड़म के ऋण मिलना संभव नहीं है। जैसा सरकार द्वारा इसके लिए जितना प्रचार किया जाता है, क्या उतना आसानी से किसी को ऋण वाकई मिल पाता है?

लोकसभा चुनाव में मोदी को मिले भारी समर्थन में सबसे बड़ी भागीदारी युवाओं की रही। रोजगार उनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा है। मोदी सरकार का पहला तीन साल चाहे जैसा भी रहा है पर देश के करोड़ों बेरोजगार नौजवानों के लिए ये साल अच्छे नहीं रहे। ‘अच्छे दिन’ के वादे के साथ केंद्र की सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार नए रोजगार सृजित करने के मामले में पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार से भी पीछे है। देश के नौजवानों को उन्होंने दिन में ही तारे दिखला दिए। नए रोजगार तैयार होने की दर पिछले आठ सालों के न्यूनतम स्तर पर है। इससे भी बुरी खबर ये है कि निकट भविष्य में भी नये रोजगार तैयार करने को लेकर कोई तथ्यपरक सकारात्मक संकेत नहीं दिख रहे हैं। वहीं सरकार द्वारा शुरू किए गए कार्यक्रमों में रोजगार पैदा करने के लिए किसी राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम की कमी रोजगार के संकट को और भी गहरा कर रहा है।

आईआईटी जैसे संस्थान से पासआउट छात्रों को मिलने वाली नौकरी में गिरावट दर्ज की गई है। इस साल पास होने वाले प्रत्येक तीन आईआईटी छात्रों में से एक को अच्छी नौकरी नहीं मिली या वह कैंपस से नौकरी नहीं ले सका। हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित डेटा के मुताबिक भारत में इंजीनियरिंग प्रतिभाओं के लिए रोजगार के अवसर कम होने के संकेत मिले हैं।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से जारी आईआईटी के उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक 2016-17 में 66 प्रतिशत छात्रों को रोजगार मिला, जबकि 2015-16 में 79 प्रतिशत, 2014-15 में 78 प्रतिशत छात्रों को नौकरी की पेशकश की गई। रिपोर्ट के मुताबिक इस वर्ष देश के 17 आईआईटी संस्थान के 9104 छात्रों ने आवेदन किये जिसमें से सिर्फ 6013 छात्रों को नौकरी के ऑफर मिले। जबकि देश के 23 आईआईटी संस्थानों में 75000 छात्र पढ़ाई कर रहे हैं।

देश के आईआईटी जैसे संस्थान का यह हाल है। इसके बाद केन्द्र एवं राज्य के इंजीनियरिंग संस्थान और दूसरे प्राईवेट इंजीनियरिंग संस्थानों के बारे में ज्यादा कुछ बताने की आवश्यकता नहीं रह जाती है, जो नाॅलेज के नाम पर सिर्फ कागज की डिग्री बेचते हैं और उस डिग्री को खरीदने के लिए भी देश में लोगों की कमी नहीं है।

केन्द्रीय श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार साल 2013 में 4.19 लाख नई नौकरियां निकली थीं, वहीं साल 2014 में 4.21 लाख और 2015 में वह 1.35 लाख नई नौकरियां ही तैयार हुईं। मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में साल 2009 में 10 लाख नई नौकरियां तैयार हुई थीं। सरकारी आंकड़े खुद सरकार की तस्वीर पेश कर रही है और सरकार इस पर भी मानने को तैयार नहीं है। जहां एक तरफ केंद्र सरकार नई नौकरियां नहीं तैयार कर पा रही है वहीं भारत में बहुत बड़े वर्ग को रोजगार देने वाले आईटी सेक्टर में हजारों युवाओं की छंटनी हो रही है। आईटी सेक्टर पर नजर रखने वाली संस्थाओं के अनुसार भारत के आईटी सेक्टर में सुधार की निकट भविष्य में कोई संभावना नहीं दिख रही है। वैश्विक स्तर पर अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों द्वारा आईटी और सेवा क्षेत्र में बड़े फेरबदल करने के बाद भारत के सामने बड़े स्तर पर लोगों का रोजगार छिनने का खतरा पैदा हो चुका है। दुनिया भर में संगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं, क्योंकि हर क्षेत्र में ऑटोमेशन बढ़ रहा है।

केंद्र में सत्ता में आने से पहले भारतीय जनता पार्टी ने हर साल दो करोड़ नए रोजगार पैदा करने का वादा किया था। रोजगार सृजन में लगातार पिछड़ते जाने के बाद हो रही आलोचनाओं के जवाब में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने मीडिया से कहा कि उनकी पार्टी ने नौकरी नहीं बल्कि ‘रोजगार’ सृजन का वादा किया था। अमित शाह ने दावा किया कि मोदी सरकार की स्किल इंडिया और स्टार्ट-अप इंडिया जैसे कार्यक्रम से काफी रोजगार पैदा हुए हैं। देश में जिस पार्टी की सरकार हो और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा बार-बार अपनी बातों को जुमला ठहरा देना। अपने वायदों में पूर्णतः फेल हो जाने पर अपने शब्दों का कुतर्क पेश कर और इसका दोष जनता के सिर मढ़कर ही अपना पीछा छुड़ा लेना, अमित शाह की पुरानी आदत रही है। जैसाकि उनके अपने बातों से ही स्वीकारोक्ति हो जाती है, पन्द्रह लाख खाते में आने की बात को वे जुमला ठहरा देते हैं। प्रति वर्ष दो करोड़ नए नौकरी को वे अब ‘रोजगार सृजन’ का नाम दे रहे हैं। जब नौकरी लोगों को मिलेगी ही नहीं तो फिर रोजगर सृजन करें या न करें, क्या उससे कोई फर्क पड़ता है। केन्द्रीय कौशल विकास मंत्री राजीव प्रताप रूडि का यह कहना कि हमारा मंत्रालय कौशल विकास का प्रशिक्षण देता है, रोजगार नहीं। फिर वैसे कौशल का क्या फायदा, जिसे रोजगार ही न मिले। कहीं न कोई सरकार की योजना और मंशा में खोट तो जरूर है। मोदी सरकार के तो कुर्सी संभालते ही ‘अच्छे दिन’ आ गए थे, लेकिन नौजवानों के अब बुरे दिन आ गए, अब उन्हें दिन में तारे दिखाई पड़ने लगे हैं। इससे तो यही यही कहावत चरितार्थ होती है- ‘सरकार मस्त और नौजवान पस्त।’ अब तो भाई लोग यही नारा लग रहा है- मर जवान! मर किसान! और अब मर नौजवान!

आज देश की राजनीति लगभग विपक्ष विहीन है। राजनीति में किसी चीज की संभावना को खारिज कर देना जल्दबाजी होता है। दिलचस्प बात यह है कि सरकार में रहते हुए भी बागी और विद्रोही की भी भूमिका मोदी निभा जा रहे हैं। फिर भी विपक्ष की जरूरत तो डेमोक्रेसी में होती ही है। मेरे हिसाब से विपक्ष और इनके नेता जब तक मुद्दों पर गंभीर बात करते हुए आम लोगों से संबंध स्थापित नही करेंगे, तब तक उनका उभरना मुश्किल है। उन्हें डायरेक्ट मोदी अटैक की राजनीति से निकलना होगा। विपक्ष राजनीति की गाड़ी का ऐसा ब्रेक है जो कभी-कभी अनियंत्रित सरकार और सत्ता की गाड़ी को नियंत्रित करता है। ऐसे में गाड़ी में ब्रेक का होना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी राजनीतिक सिस्टम में सशक्त विपक्ष का होना भी है।

आज जिस जनता-जनार्दन ने मोदी को सिर पर बिठाए हुए है, उसे धरती पर पटकने में देर नहीं लगेगी। कुर्सी से हटते ही, अच्छे से अच्छे बादशाह के होश ठिकाने आ जाते हैं और उनका सारा भ्रम दूर हो जाता है। यही आदत रही तो आने वाले दिनों में सरकार की सारी-की-सारी योजना धरी-की-धरी रह जाएगी और मोदी को भी यही जनता सबक सिखाएगी। अगर सरकार समय रहते सचेत न हुई तो आने वाले समय में सरकार को इसकी कीमत बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।

द्वारा- बरुण कुमार सिंह

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