तमाशाइयों के पास इसके अलावा और चारा ही क्या है कि वह किनारे खड़े होकर दंगल देखें और अपने अनुभव के आधार पर लड़ने वालों में किसी एक पक्ष पर अपने आकलन की जीत का जुआँ खेलें. दूसरों की मेहनत में अपने मनोरंजन को शामिल कर लेने से एक रोचकता तो आ ही जाती है. किसी भी खेल के मैदान से लेकर सियासत के मुकाबले तक तमाशाइयों का दर्शन-शास्त्र यही रहता है.

उपचुनाव नतीजे:

आज जिन उप-चुनावों के नतीजे आ रहे हैं, जिस-जिस क्षेत्र में यह मुकाबला चल रहा है, वहां के मतदाताओं के लिए उनका उम्मीदवार, स्थानीय समीकरण और मुद्दे अहम हो सकते हैं लेकिन बाकी देश को उन सबसे कोई मतलब नहीं है.

बाकी देश भी बड़ी दिलचस्पी से उन नतीजों को देख रहा है जो ईवीएम की मशीने उगल रही हैं. चुनाव-क्षेत्रों के लिए कुछ घंटों में नतीजों की अधिकारिक घोषणा हो जाएगी और ढोल-नगाड़ों तथा लम्बी ख़ामोशी के बीच यह तमाशा गुजरी हुई बात हो जाएगी.

गोरखपुर और फूलपुर के बाद कैराना में भी हार:

लेकिन बाकी देश के सियासी आकलन में, राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों में, नतीजों के बाद की सरगर्मियां ज्यादा तेज हो जाएँगी. सबसे बड़ा सवाल उत्तर-प्रदेश का है जहाँ गोरखपुर और फूलपुर के बाद अब कैराना की संसदीय सीट भी भाजपा के हाथ से फिसल चुकी है.

यहाँ सवाल तीन हैं, क्या इसे भाजपा की हार माना जाए या योगी-राज के प्रति लोगों का गुस्सा या फिर सपा-बसपा गठबंधन की शक्ति. क्योंकि पिछले दिनों में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उसकी चुनावी-रणनीति के सबसे बड़े महारथी, अमित शाह ने भी माना था कि यह गठबंधन बीजेपी के लिए मुश्किलें पैदा करने वाला है.

उत्तर-प्रदेश जहाँ 14 की लोकसभा और 17 की विधान-सभा, यानी दो बार मतदाताओं ने भाजपा को वह आशीर्वाद दिया जिसकी शायद उसने कल्पना भी नहीं की थी लेकिन उसके बाद तीन महत्वपूर्ण लोकसभा सीटों पर ऐसे झटके भी दे दिए हैं जिनसे बीजेपी के भीतर खलबली मचना लाजमी बात है.

इसका पहला निशाना तो योगी ही बनेंगे क्योंकि प्रदेश के कप्तान तो वही हैं. लेकिन योगी से ज्यादा यह देश की केन्द्रीय सत्ता में बैठी भाजपा के लिए भी अति-चिंता का विषय है. क्योंकि कर्नाटक में विपक्षी-दलों ने एक मंच साझा करके मुकाबले के जो संकेत दिए हैं उन तेवरों को इन उप-चुनाव के नतीजों से और ताकत मिलेगी, इसमें भी क्या शक रह जाता है.

लेकिन जिस तरह फूलपुर और गोरखपुर चुनावों के बाद भाजपा के अन्दर ही दो खेमें बंटते नज़र आये थे, वह दरार भी इन नतीजों से और चौड़ी होगी. भाजपा में रहते हुए भी जिन्हें कोई सियासी प्रसाद नहीं मिला उनके पास खोने के लिए है ही क्या जो वह चिंता करें.

बढ़ रहा असंतुष्ट खेमा:

पिछले चार वर्षों में असंतुष्टों का यह खेमा ख़ामोशी के साथ बड़ा हो रहा है. भाजपा अपने ही लोगों को कैसे समझा-बुझा कर वापिस काम पर लगाएगी, यह सवाल उसके सामने सबसे बड़ा है.

पिछले दिनों अमित शाह ने घोषणा की थी कि वह देश के वरिष्ठ और विशिष्ठ नागरिकों से मिलकर उन्हें मोदी-सरकार की परर्फोमेंस की जानकारी देंगे.

इसकी शुरुआत भी उन्होंने आर्मी के रिटायर्ड जनरल सुहाग से मिलाकर कर कर दी है. लेकिन विपक्ष इस शुरुआत का मजाक इस तरह उड़ा रही है कि कार्य वह होता है जो खुद-ब-खुद दिख जाए.

इसके लिए लोगों के पास जाकर बताने की क्या जरुरत है. क्या देश के विशिष्ठ नागरिकों को नहीं पता है कि देश के किसान, मजदूर, बेरोजगार और मंझोल व्यावसायिक तबका किन हालात से गुजर रहा है?

2019 में भाजपा की सफलता पर सवाल:

गठबंधन की सियासत में एक जोश दिखाई दे रहा है. तो क्या यह मान लिया जाए कि 2019 में भाजपा की सफलता पर सवालिया निशान लग गया है.

अगले पांच-छः महीनों में मध्य-प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव हैं, जहाँ बीजेपी की ही सरकारें हैं, वहां क्या होगा. जो भी हो एक चीज़ जो निश्चित है वह यह कि यहाँ से लेकर 2019 तक का समय घटनाक्रमों से भरा हुआ होगा.

मोदी-शाह की जोड़ी देश को यह सन्देश देने की पूरी कोशिश करेगी कि उन्हें पांच साल और चाहियें. हालाँकि मोदी विरोधी खेमे को यह बात अच्छी नहीं लगेगी.

फिर भी सियासत अब जिस तर्ज़ पर कॉर्पोरेट घरानों के रहमो-करम पर चलने लगी है, उसमें पांच साल में किसी के लिए भी देश-हित में कुछ ऐसे नतीजे निकालकर ले आना जिन्हें उस सरकार की कामयाबी माना जाए, दूर की कौड़ी लगता है

और फिर मोदी-सरकार ने तो ऐसे-ऐसे परिवर्तन कर दिए हैं जिनके परिणाम 5 साल में आ ही नहीं सकते, इसीलिए वह लगातार 19 नहीं 2022 का जिक्र अपने भाषणों में करते रहे हैं.

जो भी हो आने वाले समय में देश रोमांचक घटनाक्रमों का गवाह बनेगा. यह कोई भविष्यवाणी नहीं बल्कि वास्तविकताओं पर आधारित एक सहज आकलन है.

जब प्लस में नहीं जीत पाए तो माइनस में कैसे जीतेंगे..?

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