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जब प्लस में नहीं जीत पाए तो माइनस में कैसे जीतेंगे..?

karnataka assembly election 2018 bjp government win or lost

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कर्नाटक चुनाव में जो होना था हो चुका है. सरकार किसकी बनेगी इसमें कर्नाटक-वासियों की दिलचस्पी ज़रूर हो सकती है, बीजेपी, कांग्रेस और जद(स) के लिए इसमें नफ़ा-नुकसान की स्थितियां और उसकी बेचैनी अभी बरकरार रहेगी लेकिन बाकी देश 15 मई के एक-दिवसीय मनोरंजन से निकल चुका है.

ये है कर्नाटक का सन्देश:

अब बातें आगे की हो रही हैं. बातें हो रही हैं मोदी के करिश्माई चेहरे की. कर्नाटक में पूर्ण बहुमत की तरफ छलांग लगाना फिर भी 104 के आंकड़े पर रुक जाना बीजेपी को निश्चित ही वह सुकून नहीं दे पाया है जिसकी उसे तमन्ना थी.

बीजेपी ने भले ही यदुरप्पा को सीएम उम्मीदवार घोषित किया हो लेकिन सारा दारो-मदार तो मोदी-शाह की जोड़ी पर ही था. कहा जा रहा था और दिख भी यही रहा है कि अगर मोदी-शाह न होते तो इस चुनाव में भाजपा कहीं नहीं टिकती.

लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो यह मान रहे हैं कि मोदी का करिश्मा धीरे-धीरे मंद पड़ रहा है.मोदी का करिश्मा और शाह के निर्देशन में माइक्रो-लेवल का बूथ मैनेजमेंट ही वह घातक हथियार था जिसके बल पर कांग्रेस-मुक्त भारत की कल्पना को अब तक साकार किया जाता रहा है लेकिन अब लोगों को यह अपने चरमोत्कर्ष से उतरता हुआ दिखाई दे रहा है.

अपने इस तर्क को वास्तविकता का लबादा पहनाने वाले इस सिलसिले से बड़े दिलचस्प आकडे पेश कर रहे हैं, जिन्हें एकदम से नकारना भाजपा वालों के लिए भी मुश्किल दिखाई पड़ता है.

मसलन अपनी बात में वजन लाने के लिए लोग कर्नाटक का ही उदाहरण पेश कर रहे हैं और सिद्धारमैया की छवि को पेश कर रहे हैं. वह सिद्धारमैया जो 40 लाख की घड़ी पहनते हैं.

सिद्धारमैया में नहीं वोट तबदीली का करिश्मा:

सिद्दारमय्या पर भ्रष्टाचार के आरोप थे. उनके चरित्र को, परिवार को लेकर तमाम तरह की बातें कर्नाटक में आम थीं. कर्नाटक में विकास के पैमाने भी अपनी दुःख भरी दास्तां सुनाने से पीछे नहीं हटते.

कुल मिलाकर सिद्धारमैया में कोई ऐसा करिश्मा नहीं जिसे वह वोट में तब्दील किया जा सकता. सत्ता में रह कर चुनाव के दरवाजे से निकलने के लिए किसी भी नेता या दल के पास रिपीट वैल्यू का होना एक जरूरी बात है, जो सिद्धारमैया में कहीं भी नज़र नहीं आती.

यह करिश्मा तो येदुरप्पा में भी नहीं है लेकिन वह तो कहीं चर्चा में भी नहीं थे.

तो कहने वाले कह रहे हैं कि जहाँ एंटी-इनकमबेंसी हो, नेता भी करिश्माई न हो और भाजपा जैसे चुनावी मैनेजर्स हों, उसके बाद भी बहुमत का जादुई आंकड़ा बीजेपी न छू पाए तो वह राजस्थान, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ में क्या करेगी?

क्योंकि वहां तो उसे ही अपनी ही एंटी-इनकमबेंसी से निपटना होगा. ऐसे सवाल सोचने के लिए ईंधन तो देते ही हैं.

मोदी में पहले जैसी बात न रही:

मान लीजिए कि अगर भाजपा या मोदी-शाह की जोड़ी कर्नाटक में क्लीन स्वीप कर गए होते जैसा कि उन्होंने यूपी में किया था. अगर कर्नाटक में ब्लॉकबस्टर परफोर्मेंस होती तो सन्देश जाता कि मोदी में अभी भी वह स्पार्क कायम है.

अगर वह यूपी और त्रिपुरा जीत सकता है, कर्नाटक को भी उसी वेग से जीत सकता है तो फिर यह करिश्मा कहीं न कहीं राजस्थान म.प्र. और छत्तीसगढ़ में भी जीत के परचम लहराएगा. और जीत के जश्न को 2019 तक ले जाएगा.

लेकिन कर्नाटक के अखाड़े से खड़े होकर वो स्थिति दिखाई नहीं पड़ रही है.

एक तरह से देखा जाए तो कर्नाटक में तो मोदी प्लस में थे क्योंकि एंटी-इनकामबंसी से उन्हें नहीं जूझना था. ऐसे में अगर कर्नाटक में उन्हें 36% वोट मिल रहे हों तो राजस्थान में क्या होगा? मध्य प्रदेश में क्या करेंगे?

छत्तीसगढ़ कैसे फतह होगा जहाँ पिछली बार भी बड़ी मुश्किल से जीते थे. खुद गुजरात का हाल भी सबके सामने है जहाँ जीत हार का मार्जिन कर्नाटक जैसा ही था.

लेकिन चलिए कर्नाटक में चल रही सरकार बनाने की रस्साकशी में उलझने के बजाय क्षेत्रीय पार्टियों का रुख करें जिनके लिए यह नतीजे नसीहत भरे हैं. ममता, नायडू, चंद्रशेखर राव, मायावती और अखिलेश जैसे क्षत्रप 19 के दंगल में अपने-अपने दावों को लेकर आशान्वित होते दिखाई दे रहे हैं.

कर्नाटक के नतीजों का सन्देश:

चुनाव से पहले और प्रचार के दौरान बार-बार यह कहा जा रहा था कि कर्नाटक के नतीजे 2019 का माहौल सेट करेंगे. तो चलिए यह भी देख लेते हैं कि कर्नाटक के नतीजों ने क्या सन्देश दिया है. क्योंकि उन्हें तो लग रहा है कि इन चुनावों से सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस को हुआ है.

क्योंकि कांग्रेस के वोट शेयर में जो बढ़ोतरी (38%) हुई है उसने क्षत्रपों को यह सन्देश तो दे ही दिया है कि कांग्रेस के विरोध में रहेंगे तो सत्ता उनके पास भी नहीं आएगी. और यदि कांग्रेस के साथ रहेंगे तो बीजेपी को हारने का सपना जरूर पाल सकते हैं.

अब इस तर्क के पीछे जो उदाहरण दिए जा रहे हैं वह भी अकाट्य हैं. कर्नाटक के विश्लेषण से जाहिर हो गया है कि कि राज्य की लगभग 34 सीटें ऐसी थीं जिसपर अगर कांग्रेस और जद(स) साथ रहते तो जीत हासिल कर सकते थे.

गठबंधन के विकल्प को ही 2019 का आधार मानने वाले आंकड़े दे रहे हैं कि कांग्रेस और जद के बीच जो वोट शेयर विभाजित हुआ है उसनेही भाजपा को बहुमत के जादुई आंकड़े के करीब पहुँचाया है.

तुरूविकेरे की सीट पर भाजपा 60,710 वोटों से जीती:

तुरूविकेरे की सीट को ही ले लीजिए जहाँ भाजपा का उम्मीदवार 60,710 वोटों से जीता. यहाँ कांग्रेस को 24,584 तथा जद को 58,661 वोट मिले. शिमोगा (ग्रामीण) में बीजेपी 69,326 वोटों से जीती. यहाँ जद को 65,549 तथा कांग्रेस को 33,493 वोट मिले.

इसी तरह कादुर, करवार, मदिकेरी और चिकमंगलूर जैसी करीब 34 सीटें ऐसी हैं जहाँ गठबंधन के सामने भाजपा नहीं ठहर पाती.

कुलमिलाकर राहुल गांधी जो बजाहिर तो हार गए हैं लेकिन गठबंधन की सियासत को अपना लोहा मनवा गए हैं कि उनके बिना चुनावी सागर में नय्या पार नहीं हो सकती. दू

सरी तरफ मोदी-शाह की जोड़ी ने एक बार फिर अपना दम-ख़म दिखाया है लेकिन एक सवाल भी छोड़ दिया है कि क्या केवल उनके ही भरोसे 2019 का समर जीता जा सकता है?

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