भारत के लोकतंत्र में देश की न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थान मिला हुआ है, अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान देश में न्यायालयों के निर्माण का काम शुरू हुआ था। ब्रिटिश हुकूमत ने भारत पर पूरी तरह से कब्जे के बाद तत्कालीन बंगाल (अब पश्चिम बंगाल) को भारत की राजधानी घोषित किया था। जिसके बाद देश का पहला उच्च न्यायालय बंगाल के कलकत्ता (अब कोलकाता) में 2 जुलाई, 1862 में बनाया था। जिसके बाद इसी साल में मुंबई (14 अगस्त, 1862) और चेन्नई (15 अगस्त, 1862) में उच्च न्यायालयों की स्थापना की गयी थी।

इलाहाबाद हाई कोर्ट की स्थापना:

  • उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में स्थित हाई कोर्ट देश का चौथा सबसे पुराना हाई कोर्ट है।
  • इलाहाबाद हाई कोर्ट की स्थापना 11 जून, 1866 को हुई थी।
  • ब्रिटिश शासनकाल के दौरान सबसे पहले कलकत्ता में उच्च न्यायालय की स्थापना की गयी थी।
  • जिसके बाद क्रमशः मुंबई और चेन्नई उच्च न्यायालयों को स्थापित किया गया था।
  • 1857 की क्रांति के दमन के बाद अंग्रेजों ने भारत में अपने संसाधनों को और संगठित करना शुरू कर दिया था।
  • जिसके बाद देश में न्यायपालिकाओं के गठन की शुरुआत हुई।
  • 1857 की क्रांति के 4 साल बाद ब्रिटिश संसद में भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम 1861 पास हुआ था।
  • जिसके बाद देश में उच्च न्यायालयों के बनाये जाने का सिलसिला शुरू किया गया।
  • इसी क्रम में 11 जून, 1866 में इलाहाबाद हाई कोर्ट की स्थापना की गयी।

आगरा से शुरू हुआ था सफर:

  • आज इलाहाबाद हाई कोर्ट को अपनी स्थापना दिवस के 150 साल पूरे हो चुके हैं।
  • देश के कुछ सबसे पुराने न्यायालयों में से एक इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपना सफर आगरा से शुरू किया था।
  • उच्च न्यायालय को आगरा में 17 मार्च 1866 में स्थापित किया गया था।
  • अंग्रेजों ने इस न्यायालय को उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों के लिए स्थापित किया गया था।
  • जिसके बाद 1869 में इसे इलाहाबाद में स्थानांतरित कर दिया गया था।
  • इलाहाबाद हाई कोर्ट के पहले न्यायाधीश का नाम सर वाल्टर मॉर्गन था।
  • आगरा से इलाहाबाद स्थानांतरण के बाद 11 मार्च 1919 को इसका नाम ‘इलाहाबाद उच्च न्यायालय’ रखा गया था।

लखनऊ पीठ की स्थापना:

  • इलाहाबाद में हाई कोर्ट साल 1869 से काम कर रहा है।
  • जिसके बाद 2 नवम्बर, 1925 में इलाहाबाद हाई कोर्ट की पीठ को लखनऊ में स्थापित कर दिया गया।
  • इसके लिए संयुक्त प्रान्त विधानमंडल द्वारा अवध सिविल न्यायालय अधिनियम 1925 पारित किया गया।
  • यह अधिनियम अवध न्यायिक आयुक्त ने गवर्नर जनरल से पूर्व स्वीकृति से न्यायालय को लखनऊ में प्रतिस्थापित कर दिया था।
  • उस दौरान लखनऊ पीठ को ‘अवध चीफ कोर्ट’ के नाम से जाना जाता था।
  • अवध चीफ कोर्ट ने ही 9 अगस्त, 1925 को हुए ऐतिहासिक काकोरी कांड में अपना फैसला सुनाया था।

आजादी के बाद लखनऊ बना इलाहाबाद की पीठ:

  • देश की आजादी के बाद 25 फरवरी, 1948 को उत्तर प्रदेश की विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया।
  • प्रस्ताव में राज्यपाल और गवर्नर जनरल से इलाहाबाद और लखनऊ को एक करने का अनुरोध किया गया था।
  • प्रस्ताव को स्वीकृति मिली और उसके बाद प्रमुख(लखनऊ) और उच्च(इलाहाबाद) को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के नाम से जाना जाने लगा।
  • वहीँ सारा कामकाज भी इलाहाबाद से ही चलने लगा।
  • हालाँकि, लखनऊ को स्थायी बेंच तब भी माना गया, जिससे सरकारी काम में व्यवधान न पड़े।

इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा किये गए ऐतिहासिक फैसले:

  • सूबे का इलाहाबाद हाई कोर्ट देश का चौथा सबसे पुराना उच्च न्यायालय है।
  • इलाहाबाद हाई कोर्ट को अपने ऐतिहासिक फैसलों के चलते भी याद किया जाता है।
  • जिनमें से कुछ ऐतिहासिक फैसले हम आप के लिए लेकर आये हैं।

राम मंदिर का फैसला:

  • अयोध्या का रामजन्मभूमि विवाद देश के सबसे संवेदनशील मुद्दों में से एक है।
  • यह मुकदमा 60 साल से भी अधिक वक़्त तक चला।
  • राम मंदिर का मामला अपने आप में काफी पेचीदा है, जिसमें कुल 82 गवाह पेश किये गए थे।
  • जिसमें हिन्दुओं की ओर से 54 और मुस्लिमों की ओर से 28 गवाह पेश किये गए।
  • इसके अलावा हिन्दुओं की गवाही 7,128 पन्नों और मुस्लिमों की गवाही 3,343 पन्नों में लिखी गयी।
  • पुरातन महत्व के आधार पर हिन्दुओं की ओर से 4 और मुस्लिमों की ओर से 8 गवाह पेश किये गए।
  • हिन्दुओं की गवाही 1,209 पन्नों में और मुस्लिमों की गवाही 2,311 पन्नों में दर्ज की गयी।
  • इतनी लम्बी सुनवाई के बाद तीन जजों की पीठ ने अपना फैसला सुनाया था।
  • तीनों ही जजों ने यह फैसला सुनाया था कि, विवादित ढांचा किसी पुराने ढांचे पर बनाया गया है।

इंदिरा गाँधी को घोषित किया था अयोग्य:

  • साल 1971 के लोकसभा चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की शानदार जीत हुई थी।
  • लेकिन समाजवादी नेता राजनारायण मिश्र ने चुनाव परिणाम को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दे दी।
  • जिसके बाद मामले की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने जून 1971 को अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया।
  • जिसके तहत इंदिरा गाँधी का चुनाव परिणाम निरस्त कर दिया गया।
  • साथ ही इंदिरा गाँधी को अगले 6 साल तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया गया था।
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