उत्तर प्रदेश में 3 महीनों में हुए 4 उपचुनावों में भाजपा को लगातार हार का सामना करना पड़ा. जिसके बाद से ही प्रदेश में बहुमत से सत्ता में आने वाले दल का विपक्षियों के गठबंधन की राजनीति के सामने कमजोर पड़ना साफ़ दिखने लगा. लेकिन इन चारों चुनावों में भाजपा की हार की वजह मात्र गठबंधन नहीं रही. इसके अलावा भी कई बातें भाजपा के विरोध में चली गयी.

भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उपचुनावों में मिली हार के बाद अब और भी ज्यादा सतर्क हो गया. जिसके साथ ही योगी सरकार ने जनता को अपने पक्ष में करने और विपक्षी दलों की एक जुटता को भी हराने की रणनीति बना ली हैं

भाजपा के हार का कारण:

योगी सरकार की आगामी चुनावों में जीत की रणनीति को समझने से पहले हार के कारणों को जानना जरुरी हैं. कई ऐसी वजह रही जिनकी वजह से भाजपा प्रदेश में हुए गोरखपुर और फूलपुर उपचुनावों के बाद कैराना और नूरपुर में भी बड़े अंतर से हार गये.

सिर्फ़ उपचुनावों की बात की जाये तो विरोधी दलों के एक साथ आने से बीजेपी चित ज़रूर हो गई, लेकिन ऐसा नहीं था कि इस जीत के लिए सिर्फ़ इन दलों का एकजुट होना ही एकमात्र कारण था. दरअसल, इन चारों जगहों पर पार्टी कार्यकर्ताओं की नाराज़गी भी बड़ी वजह थी.

गठबंधन:

गोरखपुर और फूलपुर चुनावों के दौरान जहाँ प्रदेश की दो बड़ी पार्टियों में आपसी गठबंधन कर भाजपा का मिल कर सामना किया वहीं इन चुनावों में भाजपा की सबसे बड़ी चूक प्रत्याशियों के चयन में रही. हमेशा से भाजपा की सीट रही गोरखपुर योगी सरकार की इसी गलती की वजह से उनके हाथ से निकल गयी.

अभी हाल ही में हुए कैराना और नूरपुर के चुनाव भी गठबंधन के चलते ही भाजपा को ठेंगा दिखा गये. सीएम योगी सहित कई नेताओं ने जमकर रैलियां की लेकिन सपा-आरएलदी-बसपा के गठबंधन के सामने सब फीका पड़ गया.

विपक्षी दलों ने यादव, दलित, मुश्लिम, जाट वोट बैंकों पर सीधे सेंध लगाई.

पार्टी के भीतर नाराज़गी:

भाजपा की हार में खुद उनके ही दल के अंदर की खटपट रही. जहाँ एक ओर दलित सांसद और विधायक अपनी ही सरकार के खिलाफ प्रधामंत्री को खत लिख रहे थर, वहीं सीएम योगी के विधायकों और सांसदों को नजरअंदाज करने की भी खबरे सामने आ रही थी.

इतना ही नहीं पार्टी के कार्यकर्ताओं में भी नाराज़गी की खबरे इस दौरान आती रही.

भाजपा की जीत की रणनीति:

विपक्षी दलों के गठबंधन की आहट और पार्टी कार्यकर्ताओं की कथित नाराज़गी को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी में संगठन से लेकर सरकार तक मंथन शुरू हो गया है.

चौपाल:

इसी कड़ी में पार्टी ने कार्यकर्ताओं और जनता तक सीधे पहुँचने के लिए चौपाल कार्यक्रम आयोजित किया. इसके जरिये सरकार के मंत्री और विधायक अपने अपने जिले के गाँवों में जाकर रात्रि प्रवास और जन चौपाले लगाते हैं और जन समस्याएं सुनते हैं.

इस अभियान के तहत कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए ख़ुद मुख्यमंत्री लगातार ज़िलों के दौरे कर रहे हैं, चौपाल कार्यक्रमों में रात गुज़ार चुके हैं.

सम्पर्क फॉर समर्थन :

जिसके बाद अब भाजपा सरकार ने एक नये अभियान के तहत ग्रामीणों और कार्यकर्ताओं के अलावा संभ्रांत नागरिकों तक पहुँचने की भी शुरुआत की. इस अभियान का नाम हैं सम्पर्क फॉर समर्थन.

जिसके तहत अब हर शहर के संभ्रांत नागरिकों तक पहुंच बनाने की कोशिश की जा रही है. इस अभियान में मुख्यमंत्री, उनकी कैबिनेट के दूसरे मंत्री, प्रदेश अध्यक्ष और संगठन के दूसरे नेता भी लगे हैं. जो संभ्रांत लोगों को घर-घर जाकर सरकार की उपलब्धियां गिना रहे हैं.

सरकार और संगठन के बीच तालमेल

उपचुनाव के नतीजों में कार्यकर्ताओं की लापरवाही साफ़ देखी गई और उसका परिणाम भी बीजेपी के लिए अच्छा नहीं रहा. पार्टी के चौपाल कार्यक्रम से कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद स्थापित किया जा रहा है.

दूसरी ओर, सरकार और संगठन के बीच भी कई बार तालमेल की कमी दिखती है. इसके लिए पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के यूपी के दौरे पर रहने की भी खबरे हैं. जो संगठन और पार्टी के बीच की सांठगाँठ को बरकरार रखने की कोशिश में रहेंगे.

अब सवाल ये उठता है कि भाजपा की ये रणनीति क्या गठबंधन को हराने में सफल हो पायेगी? चौपालों और सम्पर्क फॉर समर्थन कार्यक्रमों के जरिये केंद्र और राज्य सरकारों की कार्यप्रणाली और उपलब्धियां बता कर क्या पार्टी गठबंधन की ताक़त पर भारी पड़ेंगी?

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