भारतीय जनता पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस देश के दो सबसे बड़े राजनीतिक दल हैं। आजादी के बाद से ही ज्यादा समय कांग्रेस सत्ता पक्ष और भाजपा विपक्ष की भूमिका में रहा है। साल 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस क्रम को उल्टा कर दिया और भाजपा ने बहुमत के साथ लोकसभा में सरकार बनायी।

कांग्रेस की राह पर भाजपा:

2014 के लोकसभा चुनावों में यकीनन भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में शानदार जीत दर्ज़ की थी।भाजपा की जीत में नरेन्द्र मोदी की लहर से ज्यादा कांग्रेस की वो रणनीति थी, जिसके तहत उन्होंने एक-एक करके पार्टी के क्षेत्रीय नेतृत्व की भूमिका को खत्म कर दिया, और किसी भी तरह का फैसला केंद्रीय नेतृत्व द्वारा ही अंतिम और मान्य होगा। यही रणनीति 2014 के लोकसभा चुनावों में उनकी हार का अप्रत्यक्ष कारण बनी।

भारतीय जनता पार्टी 2014 के चुनावों के बाद कांग्रेस की रणनीति पर चलती दिखाई दे रही है। पार्टी द्वारा एक एक करके क्षेत्रीय नेतृत्व की भूमिका को खत्म किया जा रहा है। सूबे के 2017 के चुनावों के लिए पार्टी प्रदेश में नए चेहरों को नेतृत्व दे रही है या ये कह सकते हैं कि ऐसे लोगों को चुना जा रहा है, जो केंद्रीय नेतृत्व के फैसले और मर्ज़ी के खिलाफ न जाएँ। जबकि पार्टी के पास उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह जैसे कद्दावर नेता हैं, जिनका राजनैतिक कद बहुत बड़ा है। गौरतलब है कि, कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री कार्यकाल की ‘गुड गवर्नेंस’ जैसा उदाहरण आज तक कोई पेश नहीं कर पाया है।

कल्याण सिंह की उपेक्षा क्यों?

प्रदेश भाजपा में आज भी कल्याण सिंह एक बहुत बड़ा नाम हैं, वर्तमान समय में राजस्थान के गवर्नर कल्याण सिंह हाल ही में प्रदेश प्रवास पर थे। भाजपा के कई बड़े नेता और भारी संख्या में कार्यकर्ताओं ने उनके आवास पर उनसे मुलाकात की। जो यह दर्शाता है कि, कल्याण सिंह का रुतबा आज भी वही है। ऐसे में भारत की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक पार्टी भाजपा जहाँ एक चाय वाला प्रधानमंत्री बन सकता है, वो एक वरिष्ठ, कद्दावर नेता की उपेक्षा क्यों कर रही है, जबकि सभी यह समझते हैं कि, यदि आगामी विधानसभा चुनावों में कल्याण सिंह को चुनाव सम्बन्धी कोई जिम्मा दिया जाता है तो यकीनन उत्तर प्रदेश चुनावों में भाजपा अपनी वर्तमान उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन कर सकती है।

किसी भी पार्टी का सबसे मजबूत आधार उसके कार्यकर्ता होते हैं और कार्यकर्ताओं को पार्टी के सूत्र में पिरोने का काम क्षेत्रीय नेतृत्व का होता है। यदि आप क्षेत्रीय नेतृत्व की भूमिका को ही समाप्त कर देंगे तो पार्टी के पास कार्यकर्ताओं के नाम पर सिर्फ तमाशा देखने वाली भीड़ होगी।

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