जौनपुर: इस शहर की कहानी हमारे देश जैसी है, जैसे भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहते थे, ठीक वैसे ही जौनपुर को शिराज-ऐ-हिन्द। पर राजतंत्र के बाद लोकतंत्र भी इस शहर को इसका हक दे नहीं सका और शिराज-ऐ-हिन्द धीरे-धीरे ही सही, पर अपनी पहचान खोता चला गया। शाही पुल पर किसी शाम खड़े होकर देखिये तो जौनपुर किसी मध्यकालीन कवि की कल्पना सी लगता है। थोड़ा बेहतर इसलिए भी समझता हूँ क्यूंकि यहाँ से मेरा पुराना नाता है, मोदीजी जितना तो नहीं, पर ननिहाल होने के कारण 4 वर्षों तक शुरूआती स्कूली शिक्षा यहीं से प्राप्त हुई है।

जौनपुर सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने 1360 ई में बसाया था, यह शहर आगे चलकर कला और स्थापत्य के लिए संपूर्ण भारतवर्ष में मशहूर हुआ। पर सिकंदर लोदी ने इस बसे बसाए शहर को तहस नहस कर दिया, उनकी मौत के बाद यह शहर फिर से बसा। वर्तमान की कहानी भी कुछ जुदा नहीं है, बस देखने वाली बात यह होगी कि लोकतान्त्रिक ‘सिकन्दर लोदी’ की हस्ती यहाँ से कब गायब होगी। आधे-दर्जन मंत्रियों वाला यह शहर ख़राब बिजली व्यवस्था, दोयम दर्जे की सड़कों और गलियों में दम तोड़ते पुश्तैनी व्यापारों के लिए जाना जाता है। शूटरों और अपराधियों की शरणस्थली भी कह दें तो बेईमानी नहीं होगी।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 से यहाँ की जनता को उम्मीदें बहुत हैं, 50 किलोमीटर की दूरी पर बसे बनारस को क्योटो बनाए जाने की बात होती है तो जौनपुर के पास मुस्कुराने के सिवा और कोई चारा नहीं बचता। यहाँ की तरक्की गिनाने वाले नेताजी का परिवार फिल्में देखने भी बनारस जाता है क्यूंकि जौनपुर के पास अपना एक ‘मल्टीप्लेक्स’ भी नहीं है। कहते हैं जौनपुर बाद में बसे हुए शहरों के लिए ‘नज़ीर’ है, इस बार का विधानसभा चुनाव जौनपुर के लिए क्या लेकर आता है वो तो 11 मार्च ही बताएगा, पर हाँ “इस शहर ने अपना स्वरुप हमेशा बदला है, एक बार नहीं, कई-कई बार।

लगभग 45 लाख मतदाताओं वाले इस शहर में पुरुष और महिला मतदाताओं की संख्या बराबर ही है। 60 फीसदी से ज्यादा लोग शिक्षित हैं फिर भी अवसरों की कमी के कारण जौनपुर का युवा अपना भविष्य मुम्बई और अहमदाबाद में देखता है। और भी कई मुद्दे हैं जो यहाँ के मतदाताओं को अपना वोट डालते वक़्त ध्यान में रखने होंगे, पर अभी जल्दी ही देश में तहलका मचाने वाले नोट-बंदी के बारे में हमने जब एक ठेठ जौनपुरिया से पूछा तो उसने दो टूक जवाब दिया “हमने के लगे रहबै का रहल जौन माथा पीटल जाए, काल्हो मोटका चाउर खा के सुतै के रहल और आजौ उहे हाल बा”।

मतलब तो यही समझ में आया, कि मतदाता बोलेगा नहीं वोट देकर बताएगा। वैसे में जौनपुर दोहरे और इत्रों के लिए जाना जाता है, हमारे पिताजी के शब्दों में कहें तो “जौनपुर बोलता कम और महकता ज्यादा है”। फ़िलहाल 9 विधानसभा वाले इस शहर की जमीनी हकीकत के तह जाने की कोशिश की है, और लोगों की नब्ज़ टटोल कर देखने का प्रयास, शब्दों में लिखे दे रहा हूँ, कुछ गलती हो जाए तो एडवांस में माफ़ करें।

ग्राउंड रिपोर्ट: विधानसभा दर विधानसभा

विधानसभा- मल्हनी

मल्हनी सीट पर जौनपुर शहर के दो दिग्गजों की प्रतिष्ठा दाव पर है। सपा के कैबिनेट मंत्री पारसनाथ यादव और पूर्व सांसद व बाहुबली नेता धनंजय सिंह अपनी अपनी साख बचाने के लिए जोर भर रहे हैं। धनंजय के चुनावी मैदान में उतरने के कारण भाजपा और बसपा के वोट बैंक में सेंध जरूर लगी है, जिसका सीधा फायदा सपा को मिलता दिखाई दे रहा है। एकतरफ बसपा ने साफ़ छवि के नेता विवेक यादव को मैदान में उतारा हैं तो वहीँ क्षेत्रीय लोग कहते हैं कि पारसनाथ यादव का तो नहीं पता पर उनके बेटों का ‘काम बोलता है”, और यादव जी की छवि पर इसका सीधा असर पड़ा है। पर पारसनाथ यादव के पारंपरिक वोट बैंक को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। ऐसे में ये देखने वाली बात होगी कि कौन अपनी प्रतिष्ठा बचा पाता है, पर हाँ धनंजय सिंह अगर बसपा से चुनाव लड़ते तो समीकरण बिलकुल अलग होते।

विधानसभा- जौनपुर सदर

सदर सीट पर 2012 में कांग्रेस के फायर ब्रांड युवा नेता और राहुल गाँधी के करीबी माने जाने वाले नदीम जावेद ने मात्र 1239 वोटों से जीत दर्ज की थी। पर इस बार समीकरण थोड़े ही सही पर बदले जरूर हैं, एक तरफ भाजपा प्रत्याशी गिरीश यादव को स्वामी प्रसाद मौर्या के साथ और मोदी की लहर पर भरोसा है तो वहीँ नदीम जावेद को ‘अखिलेश और राहुल’ के साथ पर, वहीँ बसपा प्रत्याशी अपने पारंपरिक वोट बैंक के साथ लड़ाई त्रिकोणीय बनाने की कोशिश में हैं। खैर यह सीट जौनपुर की प्रतिष्ठा है, पर इस पर राज़ करने वाले लोगों को इसनें बस दिया ही है, अभी तक मिला कुछ नहीं। फिलहाल यहाँ लड़ाई भाजपा और कांग्रेस-सपा गठबंधन के बीच है, हाँ अगर गठबंधन नहीं होता तो नदीम जावेद के ‘फ़िल्मी प्रचारक’ इस बार नैय्या पार लगा पाते या नहीं इसमें संदेह था।

विधानसभा- मुंगरा बादशाहपुर

वोट कटुआ किसे कहते हैं ये 2012 में ज्वाला प्रसाद यादव ने निर्दलीय खड़े होकर इस विधानसभा के लोगों को बताया था। सपा उम्मीदवार विनोद सिंह जब अपनी जीत पक्की मान रहे थे तब उन्होंने समीकरण बिगाड़ दिया था जिसकी वजह से भाजपा नेत्री सीमा द्विवेदी की जीत हुई थी। मजेदार बात ये है कि इस बार विनोद सिंह के बेटे सत्येन्द्र सिंह फंटू भाजपा में शामिल हो चुके हैं और वह खुद सीमा के प्रचार में जुटे हैं। वहीँ अपने ‘ख़ास’ वोट बैंक पर बसपा प्रत्याशी सुषमा पटेल को भी पूरा भरोसा है, ऐसे में अगर कांग्रेस प्रत्याशी अजय शंकर दुबे चुनाव मजबूती से लड़ते हैं तो बसपा को नुकसान जरूर पहुंचाएंगे। मतदाताओं के मन में क्या है ये कह पाना तो मुश्किल है पर यहाँ लड़ाई त्रिकोणीय है।

विधानसभा- मछलीशहर व केराकत (सुरक्षित)

सूबे की दोनों ही सुरक्षित सीटों पर लड़ाई कांटे की है। बात करें मछलीशहर की तो सपा से राज्यमंत्री जगदीश सोनकर, भाजपा से क्षेत्र की जानी-मानी नेत्री अनीता रावत और बसपा से सुशीला सरोज मैदान में हैं। जगदीश सोनकर जिन्हें क्षेत्रीय लोग ‘खतौनी मंत्री’ भी कहते हैं पर महिलाओं का दोहरा दबाव है, यहाँ लड़ाई एक बार फिर से त्रिकोणीय है, पर भाजपा समर्थकों को अभी तक पहचानी ना जा पाने वाली ‘लहर’ पर पूरा भरोसा है।

केराकत में आज़ादी के बाद से ही ज्यादा कुछ बदला नहीं है, हाँ पार्टी का नाम और चेहरा जरूर बदल जाता है। इस बार यह सीट अंतर्कलह की वजह से चर्चा में जरूर है। यहाँ आम तौर पर बसपा और सपा में लड़ाई होती रही है पर इस बार भाजपा गठबंधन भी मजबूत दावेदारी पेश कर रही है। स्थानीय लोगों के अनुसार लगभग 1 लाख 20 हज़ार महिला मतदाता वाली इस विधानसभा में लड़ाई बसपा और भाजपा के बीच है।

विधानसभा- अन्य सभी

बाकी बची सभी विधानसभा सीटों पर भी लड़ाई पिछली बार से काफी मजेदार और अलग है। मड़ियाहूं सीट की लड़ाई तब मजेदार हो गयी जब कृष्णा पटेल वाली अपना दल से मुन्ना बजरंगी की पत्नी सीमा सिंह मैदान में उतर गयी। सीमा जीतने भर का नहीं तो अपना दल प्रत्याशी श्रद्धा यादव को हारने भर का दम जरूर भर रही हैं, जिसका सीधा फायदा बसपा को मिलता दिखाई दे रहा है। बदलापुर सीट के सिटींग MLA को चुनौती देने बसपा से गोद लिए हुए भाजपा प्रत्याशी रमेश मिश्र और बसपा प्रत्याशी लालजी यादव मजबूती से मैदान में हैं। शाहगंज से ललई यादव की प्रतिष्ठा दाव पर है, तो वहीँ जाफराबाद भाजपा प्रत्याशी हरेन्द्र सिंह के लिए अस्तित्व की लड़ाई है। कुल मिला जुलकर इन सभी विधानसभा पर विजेता ‘फ्लोटिंग वोटर्स’ तय करेंगे।

जौनपुर वो शहर है जहाँ की इमरती लखनऊ के बड़े नेताओं को खिलाकर लोग मंत्री जरूर बन गए, पर सफलता मिलते ही इस शहर और इसकी इत्रनुमा महक को भूल गए। ये वो शहर है जहाँ मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियों में भी सभी धर्म और वर्ग के लोग एक साथ खड़े रहे हैं। हाँ, शाही पुल पर खड़े होकर जब सद्भावना पुल की तरफ देखेंगे तो एक उम्मीद जरूर दिखाई देगी। हम उम्मीद करते हैं कि जाति, धर्म और विशिष्ट विचारधारा सभी से उपर उठकर लोग जौनपुर के पुनर्निर्माण के लिए मतदान करेंगे। वो सिकंदर लोदी जो अभी भी कहीं इस शहर में कहीं जिन्दा है उसका संहार कर शाही किले की शान एक बार फिर से बढ़ाएंगे।

और हाँ चुनाव आयोग के लिए एक बार फिर से महत्वपूर्ण हिदायत, मतदान कक्ष के बाहर एक कूड़ेदान रख उस पर बड़े अक्षरों में यह सन्देश जरूर लिखें “दोहरा खाने के बाद यहाँ थूकें

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