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बाराबंकी: देवी माँ के ‘जुडवां मंदिर’ को पांडवों ने किया था स्थापित

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में महाभारत काल में स्थापित अमरा देवी धाम के जुड़वा मंदिरों में श्रद्धालु पूजा-अर्चना कर के मनोवांछित फल प्राप्त करते हैं. बता दें कि ये वहीं मंदिर है जहाँ राजा भानू पाल ने अपना सिर काटकर देवी माता के चरणों में अर्पित किया था.

मंदिर से जुड़ी है ये मान्यता:

बाराबंकी जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर बदोसराय सफदरगंज मार्ग पर ग्राम खजुरिहा चौराहे से अंदर डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर माता अमरा देवी का मंदिर स्थित है.

इस देवी मंदिर की मान्यताओं के बारे में यहां के पुजारी महाप्रलय ने बताया कि द्वापर काल के समय पांडवों ने अमरा देवी की स्थापना 2 जुड़वा मंदिरों के रूप में की थी.

पहला कालिका देवी और दूसरा धामसी देवी.

पांडवों ने अपने को अमरत्व प्राप्त करने के उद्देश्य से जुड़वाँ मन्दिर स्थापित करके पूजा अर्चना की थी. तभी से इस स्थान पर बसे गांव का नाम अमरा देवी पड़ा ।

राजा ने अपना सर काट किया था अर्पण:

मंदिर निर्माण के संबंध में कहा जाता है कि जुरई बाबा पाल हिंग राज से देवी प्रतिमा लेकर के आए थे और उन्होंने एक स्थान पर इसे स्थापित कर दिया था.

राजा जहांगीराबाद की जागीर होने के कारण एक बार राजा ने मंदिर के स्थान को बैलों से जुतवा कर वहां स्थापित शक्तिपीठ को मिटाना चाहता था लेकिन इसका विरोध ग्रामवासी भानु पाल ने किया.

राजा के न मानने पर उसने अपना सर काट कर शक्तिपीठ को अर्पित कर दिया. यह देखकर पूरे क्षेत्र में सनसनी फैल गई थी.

मन्दिर से जुड़ी एक मान्यता ये भी है कि रात का समय था. सुबह लोगों ने देखा तो भानुपाल का सर उसके धड़ से जुड़ा जीवित मिला.

लोगों का मानना है कि माता स्वयं प्रकट हुई और उसको जीवित किया. तब से यह मानता है कि सच्चे मन से मांगी गई लोगों की मनोकामनाएं यहां पर अवश्य पूर्ण होती हैं.

ऐसे पूरी होती हैं मनोकामनाएं:

मंदिर परिसर में दो जुड़वा मंदिरों के अलावा अन्य मंदिर पूर्वी देवी, शीतला देवी, माता संतोषी देवी के साथ ही साथ हनुमान जी का भी मंदिर है.

इस मंदिर के पीछे एक अभहरण बना हुआ है. अमरा देवी मंदिर में नवरात्र के अलावा सोमवार और शुक्रवार को भक्तों की काफी भीड़ लगती है.

शारदीय नवरात्र में भक्तों द्वारा धार्मिक कार्यक्रम दुर्गा सप्तशती पाठ, रामायण पाठ, सत्यनारायण कथा के अलावा बहराइच, गोंडा, बाराबंकी के पाल बिरादरी के द्वारा करीब 2 कुंटल हवन सामग्री सप्तमी से लेकर नवमी तक हवन किया जाता है.

इतना ही नहीं पाल बिरादरी के लोगों की मानता है कि जीभ पर लोहे का त्रिशूल गाड़ कर नृत्य करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. मान्यता के अनुसार लोग यहां अपने बच्चों का मुंडन संस्कार भी कराते हैं।

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